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बोधक सुवाक्य
४४७ (२०४). अनन्त ज्ञानीयोंने धर्मज्ञान प्राप्त करने के लिये चार ।
भावनायें कही हैं । उन भावनाओं का जो प्रतिदिन चिंतन हो तो मनुष्य धर्मज्ञान अच्छी तरह से कर
सकता है। (१०५) “परहित चिन्ता मैत्री"। ..
जगतमें कोई जीव पाप न करो। जगत में कोई जीव दुखी न हों । समस्त विश्वके प्राणी दुःख से मुक्त
हों एसी भावना अन्तरमें आवे उसका नाम, मैत्री । २०६) समस्त विश्व के. जीवोंके हित की चिन्ता करना
उसका नाम मैत्री भावना है। . .. (१०७) "परसुखतुष्टिर्मुदिता" -
दूसरों के सुखको देखकर राजी होना वह प्रमोद
भावना है। . .. (१०८) गुणी आत्माओंके गुणको देखके राजी (प्रसन्न) होना
वह भी प्रमोद भावना है। (१०९) “परदुख विनाशीनी तथा करुणा"
जगतके सभी जीवों के दुखोंका नाश हो। दीन अदीन वनो । पीडित अपीड़ित हों । जगत के सभी जीव अभयको प्राप्त करें। एसी भावना भना उसका नाम
करुणा भावना है। . .... १०) "परदोषोपेक्षनमुपेक्षा ” दूसरों के दोषों की उपेक्षा
करना माध्यरथ भावना है । जगतमें किसी का भी
तिरस्कार करना ये धर्मी का लक्षण नहीं है। .. (१११) संसार ये दुःख की खान है और मोक्ष सुख का ।
स्थान है। . . . . . . . . . . . . . . . . . . .' (११२) जैसा सुख मोक्षम है एसा सुख किसी भी स्थानमें नहीं है। ..
..... (११३) दूसरों के द्वारा किये गये उपकार को भूल...जाना ये
कृतघ्नपना है । लेकिन दूसरों के द्वारा किए गए उपकारको जीवनपर्यन्त नहीं भूलना ये कृतज्ञपना हे।