Book Title: Pravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Author(s): Bhuvansuri
Publisher: Vijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad

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Page 470
________________ ४२० प्रवचनसार कर्णिका. . - - - - - महाराज । तुम सिर पर चोटी रखते हो इस लिये साधु नहीं । वृद्ध साधुने कहा तो लो यह तोड़ डाली। एसा। कहके चोटी का लोचे कर डाला। फिर तो श्रावकोंने : खूब भक्ति की। ज्ञानी किसी को दीक्षा देते हैं। तो उसमें लाभालाभ का कारण समझके ही देते हैं । थोड़े दोप हों फिर वे भी समझ के चला लेते हैं। वे यह समझते हैं कि इसी में । जीव का कल्याण है। उत्सर्ग और अपवाद दोनों मार्ग:को समझ के चले उन्हें गीतार्थ गुरू कहते हैं। भले क्रोधोत्पत्ति के कितने भी कारण उपस्थित होने के प्रसंग. हों। फिर भी समतारस का पान करे उन्हें शान्तगुरू कहते हैं । काया की ममता न रखे उसका नाम जैनसाधुमहात्मा । • इस प्रकार वृद्ध साधु के पाँचों दूपणों को आचार्य । महाराजने युक्तिपूर्वक छुड़ा दिया। फिर भी ये वृद्धमुनि अभी तक गोचरी को नहीं गये थे। ये वृद्धमुनि एसा मानते थे कि घर घर भटक के लेने जाना यह मेरा काम नहीं है। इस तरह विचाधारा वाला वने रहने से वे गोचरी को नहीं जाते थे। परन्तु ये वृद्ध साधु आचार्य महाराज के पिता होने से दूसरे साधु उनकी भक्ति में कमी नहीं रखते थे। .. फिर भी आचार्य महाराज के दिल में एक बात खटकती रहती थी कि साधुपना लेकरके भिक्षा मांगने में शरम रखना यह एक दोष है । ये दोष निकालने के लिये भी उनने एक योजना विचारी। । एकदिन आचार्य महाराज थोड़े शिष्यों के साथ नजदीकः । के गाँव में चले गए । जाते समय वहीं वाकी शिष्यों से

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