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प्रवचनसार कणिका
दूसरों के दोष निन्दक वनने से अपन ही दोषकारक बनते हैं और दूसरोंके गुण देखनेसे अपन गुणवान बनते हैं इसलिये दोपके प्रति उपेक्षा करके गुणग्राहक वनो । तभी मनुष्य जीवन सुधार सकोगे ।
नगरी के एक चौक में श्री कृष्ण महाराजा हाथी पर बैठ के आरहे थे । वहां रास्ते में एक मरे हुये कुत्ते का देह दुर्गन्ध फैलाता हुआ पडा था ।
जिस जिस वस्तु के प्रति जैसा जैला उपयोग जाय वैसा वैसा असर इन्द्रियों का सो होता है। आगे चलते सैनिकों का उपयोग दुर्गन्ध की हवा फैलानेवाले कुत्ता के शव तरफ होने से उनका लक्ष दुर्गन्धता में खेचा गया । सैनिक इस दुर्गन्ध से बेचैन हुये । और नाक के आडे कपडा करके जल्दी जल्दी चलने लगे ।
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कृष्ण महाराजा का उपयोग कुत्ते के शव से सेनिकलती दुर्गन्ध की तरफ नहीं गया था किन्तु कुत्ते के चमकते दाँतों की तरफ गया था वे हाथी के ऊपर से नीचे उतर के मरे हुये कुत्ते के पास में गये । उनका उपयोग दांत को सुन्दरता के प्रति आकर्षाया हुआ होने से उन्हें दुर्गन्ध मालूम ही नहीं हुई । उनको उसकी दुर्गन्ध हैरान नहीं कर सकी । और वे कहने लगे कि इसके दांत कितने सुन्दर हैं ?
दोपित में से भी गुण लेने की वृत्ति में सज्जनता है । और गुण में से भी दोष देखने की दृष्टि में दुर्जनता है । कृष्ण महाराज क्षायिक समकित थे । छप्पन करोड़ यादवों के स्वामी थे । बत्तीस हजार स्त्रियों के प्रियतमः थे । वासुदेव थे । ये कृष्ण महाराजा आवती (भविष्यकाल ). चौबीसी में बारहवें तीर्थंकर होंगे ।