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व्याख्यान-इकतीसवाँ
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कहाँ बारह वर्ष पहले यौवन के पूरमें छलकाई जाती नागीला और आज कृश वनी नागीला । शरीर की शोआ .. में मुखकी लाली में अत्यंत फरक पड़ गया था। इस लिये भवदेव को कहां से मालूम हो कि नागीला यह
खुद ही है। : नागीलाले अपने पति को पहचान लिया । फिर भी कोई भी अधिकं वात किये विना झट जल्दी जल्दी अपने घर पहुंच गई। थोड़ी देरमें तो भवदेव भी घर पहुंच गये । मुनिको आता देखकर नागीला कहने लगी कि पधारो साहेव ! शातामें तो हो! सुनि कहने लगे कि नागीला तू है ? जी हां! तो मैं तेरे पास क्षमा मागता हूं। मैं द्रव्य से साधु बना हूं भाव ले नहीं। भाव तो मेरा तेरे में ही था । इसलिये आज फिर आ गया हूं । अब तो मैं कायम के लिये तेरा ही बनके रहने वाला हूं। . ... महात्मन् ! क्षमा मांगने की कुछ भी जरूरत नहीं है। आपले संयम स्वीकारा है वह अच्छा किया । अव तो दिल. स्थिर रखके आत्मसाधना में तत्पर वन जाओ। और मुझे भूल जाओ। . नागौला ने मुनि को स्थिर करनेका प्रयत्न किया ।
नागीला ! लेकिन तेरे विना मेरा मन और कहाँ भीलगे एसा नहीं है। मैं तो तुझे मिलने के लिये ही आया : हूं। मुनिने हृदय का उभरा उकेल दिया । .. महात्मन् । अमृत कुंड में स्वाद मानने के बाद पुनः विप कुंड में प्रवेशनेका मन कौन करे? इस लिये आप पीछे गुरु महाराज के पास पधारो और संयम में स्थिर वनो। ... इस तरह से नांगीलाने ‘समझा के अपने पति को