________________
४००
प्रवचनसार कर्णिकाः . .
-
-
--
इस रीत का संख्या प्रमाण विचरते तीर्थकर भरतक्षेत्र में विचरते अजितनाथजी भगवान के समय में थे। एक साथ एक स्थल में एक ले अधिक तीर्थकर नहीं हो सकते।
धर्म मनुष्य को सत्य रूपी वस्त्र तिलक करता है। लदाचार रूप छत्र धारण करता है। दान रूपी संजन (कंगन) पहनाता है संदेग रूपी हाथी पर बैठाता है, विविध व्रत धारण रूपी जानैया (बराती)ओं से शोभाता. है, वारह भावना रूपी स्त्रियों से ववलमंगल गीत गवाता .. है। क्षमा रूपी बहन के पाल ले लुंछणा लिखाता है।
और इस तरह ले अनुक्रम से मोक्षरूपी वधू के साथ लग्न करा देता है ये सव क्रियायें धर्म ही लाता है। इसलिये पुन्यशालियों को तदाकार बनना चाहिये।
नवपद रूपी नबसेरा हार पहनने जैसा है। श्रद्धारूपी वेदिका, सदविचार रूपी तोरण, वोध रूपी अग्नि, नवतत्व रूपी घी से यह आत्मा अपने कर्म रूपी ईधन को जला देती है। - युगलिक मनुष्य और देवों का परभव का आयुष्य वहां से मृत्यु होने के छः महीना पहले वंधती है। . देव, नारकी, युगलिक और तिरेलठ शलाका पुरुषों का आयुप्य निरुपक्रमी होता है। उनका आयुष्य किसी भी तरह के उपघात से नहीं टूटता है। अपने आयुष्य को उपघात तोड़ सकते हैं। . भापा कर्मणां के पुद्गल टकराने से शब्द श्रवण होता है। और योग्यायोग्य शब्द श्रमणानुसार श्रोता के परिणाम जंगते हैं। इसीलिये ही आगमों का श्रवण करनेवाले, श्रोताओं को कर्मनिर्जरा होती है।