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प्रवचनसार-कर्णिका से मदनरेखा से कहा कि तेरे रूप को देखकर मैं तुझमें आसक्त वना हूं। तो तू मेरे स्नेह को स्वीकारेगी तो मैं तुझे सभी राजसम्पति की मालकिन बना दंगा।
मदनरेखा तो वडील के मुख से एसी बात सुनके आश्चार्यविन्त बन गई। उसने तो खुद ही स्वस्थता से और खूब ही दृढता से राजा को कहा कि ये तुम क्या बोले ? यह तो इस लोक से भी विरूद्ध का काम है। और परलोक से भी विरूद्ध का काम है। . अच्छे मनुष्य दूसरों के जूठे भोजन की तरह किसी भी स्त्रीकी इच्छा नहीं करते हैं । फिर भी मैं तो आपके लघुभ्राता की पत्नी होने से आपके लिये तो पुत्रीके समान हूं। मदनरेखा ने एसा ही कितनी बातें करी इसलिये मणिरथ गुपचुप (चुपचाप) वहां से चला गया ।
सदनरेखा को एस लगा कि वडील समझ गये । पाप से वच गये । और मैं संकट में से बच गई । एले विचार से उसे आनन्द हुभा । और कुटुम्ब कलेश न हो इसलिये उसने इस वनाव सम्बन्धी कोई भी हकीकत अपने पतियुग बाहुको नहीं कही। .. लदगुणों के भावमें रमते मनुष्यों को ज्यों सच्चे विचार ही स्वाभाविक रीतले आते हैं। उसी तरह दोपों में रमते मनुष्यों को दुष्ट विचार ही स्वाभाविक रीतले आते हैं।
राजा सणिरथ मदनरेखा के पाससे चला गया । लेकिन वह अपनी भूलको भूलकी तरह नहीं समझा था। लेकिन धारा हुआ धूलमें नहीं मिले और वरावर सफल वने एसा मौका मिलने की इच्छा से चला गया था ।