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प्रवचनसार कर्णिका
आकाश मार्ग से सेरु पर्वत पर गए। वहाँ देवीको विनती करके लाखों फूल विमानमें रक्खे, देवके द्वारा बनाये उस विमानमें बैठके आचार्य महाराज उस नगरीमें पधारे ।
जैन संघ आनन्द आनन्द व्याप गया | पौरजनों में आश्चर्य फैल गया । राजा दौड़ आया । आचार्य महाराज के पास माफी मांगी | आचार्य महाराजने उपदेश दिया, राजा जैन धर्मी वना । प्रजा भी जैन धर्म के प्रति आदर रखनेवाली वन गई । “यथा राजा तथा प्रजा ।"
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एक समय गुरू महाराज उल्ले गये । तव वनस्वामी छोटे ये । उपाश्रय में कोई साबू नहीं एसा जानके वज्रस्वामी ने उपाश्रय के द्वार वन्द कर दिये । सब साधुओं के वीटियां ( तकिया) लेके सामने रख दिये । बीच में वज्रस्वासी बैठे | सब वींटियों को वांचना देने लगे ।
किसी को ठाणांग वांचना के पाठ के उपाश्रय के
किसी को आचारांग सूत्र की, सूत्र की, किसी को भगवती सूत्र की, बुला रहे थे । गुरू महाराज ठल्ले जा पास आए । द्वार के छिद्र मेंसे देखा । वज्र | वींटियों को आगम की वांचना दे रहा हैं | क्या ? वज्र इतना पढ़ा है ? श्रुतज्ञानी की अशातना नहीं करना चाहिए । इन्हें क्षोभ न हो इसलिए गुरु महाराज दश वीश कंदम पीछे चले गये | और जोर से नीतीही नीसीही वोलते बोलते आए । इस शब्द को सुनते ही वज्रस्वामी उठ गये वीटिया रख दियें । बाहर आये । गुरू महाराज के चरण धोने लगे ।
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गुरू महाराज परीक्षा करने के लिए एक दिन बाहर गांव गये । साधु पूछने लगे कि साहव ! हम्हें वांचना