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व्याख्यान-अट्ठाईसवाँ
३७१और चौथे पात्र में जो आता था वह खुद खाता था। एसे नियमपूर्वक तप करता था। तप उग्र होने पर भी ज्ञान विना किया गया । तप ये तप नहीं है। आश्रय के "त्याग विना संवर का लाभ नहीं मिलता है।
लघुता में प्रभुता रही है। धर्म से रंगे आदमी में प्रभुता आती है। उपधान करने को आयें थे तब जो कपायें थीं वे पतली हुई कि नहीं?
. मनुष्य के कपाल (ललाट) ऊपर से मालूम होता है कि ये शान्ति में है अथवा क्रोध में ।
नीचेके इन्द्र भी ऊपरके इन्द्रों के भवन में नहीं जा . सकते । फिर तो मनुष्य कहाँ से जा सकते ?
भवरूपी रोगको काढनेवाली औषधि के समान धर्मामृतका सेवन करना चाहिए।
रावण विमान में बैठ के कहीं जा रहा था । नीचे अष्टापद पर्वत के ऊपर वाली मुनि ध्यान धर रहे थे। चाली मुनिके सिरपर आते ही वह विमान रूक गया। ... रावण गुस्से हो गया। अरे! इस साधुने मेरा विमान रोका ! क्रोधावेशमें नीचे उतरके पर्वतको हिलाके, मुनिको उठाके समुद्र में फेंक देनेकी दुष्ट बुद्धि सूझी।।
पर्वत हिलाया, शिखर गिरने लगे। वाली सुनिने देखा कि रावण ऋोधावेशमें पसा अपकृत्य कर रहा है। मुनिको गुस्सा आ गया। मुनिने दाहिने पैरसे पहाड़ दवा दिया। रावण दवने लगा। खूनकी उल्टियाँ होने लगी। हा! हा! शब्द मुखसे निकलने लगे तभीसे उसका नाम रावण पड़ा। ... . मुनिकी अशातना और तीर्थकी अशातना से कैसी सजा भोगनी पड़ती है वह नज़रसे देखा? . . . . .