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व्याख्यान - चौवोसवाँ
३०१.
वनदेवी वहाँ आके यह द्रश्य देखके विचार करने लगी - कि जिन मुनिकी मैं भक्ति करती हूं, वे क्रोधमें तप रहे हैं 1 क्या करना ? देखा करना यही ठीक है। दो घटिका मारामारी चली, फिर दोनों शान्त हुए, गामडिया ( देहाती ) .
चला गया ।
मुनिकी काया लोहीलुहाण वन गई थी । मुनि वूम पाड़ने लगे ( चिल्लाने लगे) ।
वनदेवी ! तू कहां गई ? जल्दी आ और देख मेरी वेदना |
देवी प्रगट हुई ! क्यों महाराज ! शाता तो है ? मुनिने कहा कि किसकी शाता पूछती है ? देखती नहीं है मेरी यह हालत ! उस गामडियाने तो मुझे लोही लुहाण कर दिया । तू रोज मेरी सेवामें हाजिर रहती थी और आज कहां गई थी ? मैं लाधु हूं यह तू नही जानती ?
देवीने कहा कि यह तो मुझे खबर है । किन्तु तुम दोनो एक दूसरे को गालियां देते देते मारामारी करते थे । इसलिये मैं विचार करने लगी कि साधु कौन ?
महात्मा समझ गये कि मेरी भूल है । दूसरा आदमीभले कितना ही क्रोध करे किन्तु मुझे समता रखनी चाहिये | ये साधुका कर्तव्य है । भगवानके शासन की रक्षा के लिये सब करने की छूट है । लेकिन आत्मरक्षण के लिये अन्यको डंडासे मारा नहीं जा सकता है । साधु हमेशा चन्द्र जैसे शीतल होते हैं । और आपत्ति में सहन शीलता वाले होते हैं । उनका नाम साधु है ।
शासन का काम करनेवालों को समझ लेना चाहिये कि टीका अथवा निन्दा को सहन करना है । घर चलाने