________________
-
-
-
-
-
-
व्याख्यान-छब्बीसवाँ
३२९ . धर्म की आराधना करते करते जो विराधना हो जाये तो कम वन्धते हैं।
तामली तापस ईशानेन्द्र वना है। वहांसे महा विदेह में जायगा । वहां से दिक्षा लेके आराधना में तदाकार वनके मोझ में जायगा।
अपने धर्म में भी जिसे पूण रूचि हो उसका नम्वर . चरमावर्ति में आता है। धर्म रूचि भी भाग्य के विना नहीं हो सकती है। धर्मरूचि वाला आत्मा जो धर्म न कर सके तो उसका उसे पश्चाताप रहता है।
अपन मरके किस गति में जाने वाले हैं ? उसका सामान्य पनेसे अपन ख्याल कर सकते हैं क्योंकि जीवन . में अपनने पुण्य-पाप कितने किये हैं वे अपन जान सकते हैं।
जिस कालमें जो वस्तु वननेवाली होती है उसे कोई 'मिथ्या नहीं कर सकता है।
देवोंको छः महीना पहले अपनी मृत्यु की खवर हो जाती है क्योंकि उस समय उनके गले में रही फूल की माला कुम्हला जाती है।
नूतन देरासर (मन्दिर) बनवाने की अपेक्षा जीर्णोद्धार में अष्टगुणा लाभ होता है।
निरतिचार श्रावक धर्म की आराधना करने से ईशानेन्द्र हो सकता है। ईशानेन्द्र उत्तर का अधिपति . है। शक्रेन्द्र दक्षिणका अधिपति है। यह दोनों मिल के
काम करते हैं। अगर दोनोंमें किसी समय वादविवाद खड़ा हो जाय तो सनत्कुमार देवलोक के इन्द्र आकर के समाधान करा देते हैं ।