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प्रवचनसार कर्णिका
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साध्वीजी के द्वारा सर्व हकीकत जान ली। और कुबेरसेना वैरागी बन गई । संयमके मार्गसे प्रयाण करके अनुपम आराधना द्वारा कल्याण सिद्ध किया।
लक्ष्मी तुच्छ होने पर भी जो लक्ष्मी को सुमार्ग में लगाया । जाय तो ये महान बन सकती है। लक्ष्मी तुम्हारे राखे रहनेवाली नहीं है। साचवने से सचवानेवाली नहीं है। तो फिर लक्ष्मी के प्रति इतना प्रेम क्यों ?
जिनपूजा सामायिक प्रतिकुमणादि धर्मोनुष्ठान आदि करने के समय मोक्ष कितनी बार याद आता है। उसका विचार करना । जो वारंवार याद आता हो तो मानना कि आराधना फल रही है।
शायद कोई देव अथवा देवी प्रसन्न हो जाय । और तुमसे कहे कि मांग मांग जो मांगे देनेको तैयार हूं। तो तुम क्या मांगोगे ?
साहेव ! लक्ष्मी। धर्म नहीं। नारे नो फिर भी तुम्हारे प्रभुका भक्त कहलाना है ! . लक्ष्मी की मूछा गये विना धर्म के प्रतिराग नहीं जग सकता है। धर्मका राग जीवन में कितना आया है ? उसकी तुम्हारी तुम पहले परीक्षा करो । फिर धर्मी कहलाने का मोह रखो ।
शक्ति के अनुसार प्रभुकी भक्ति होती है। संसार के कार्यों में अधिक आनन्द आता है कि धर्म के कार्यों में ? दीक्षा का वरघोडा गमे ( अच्छा लगे) कि लग्न का वरघोडा ? यह सब दूसरों में तपास करने की अपेक्षा खुद तुम्हारे जीवनमें तपासो । . . . . . . . . . .