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प्रवचनसार कर्णिका
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उदय वाकी है। भगवान की बात पर लक्ष नहीं देते दीक्षा ली! अनेकविध तपश्चर्या करने ले कुछ ऋद्धियां भी प्राप्त हुई। - छडके पारणामें एक दिन भिक्षाके लिए निकले। एक बड़ी हवेली देखके उसमें घुसे, धर्मलाभ दिया । इनको खवर नहीं थी कि यह तो गणिका का निवास है। गणिकाने म्हेणां मारा कि महाराज! यहाँ धर्मलाभ का काम नहीं है। यहाँ तो अर्थलाभ का काम है। एसा कुछ कर सकते हो तो बताओ। सुनिको नणिकाके इल रहेणां से गुस्सा चढ़ गया। अपनी शक्ति के प्रतापले गणिका का घर धनके बरसादले भर दिया। गणिका आश्चर्थसुग्धः बन गई। उसने सब कलाओंसे खुश करके मुनिको अपने पास रख लिया।
मुलि नन्दिपेण को अपनी तोफानी प्रवृत्तियां लमझाने की जरूरत थी। वे गणिका के रहते थे फिर भी उनने प्रतिज्ञा ली कि रोज कमसे कम दश मनुष्यों को दीक्षा के पंथमें लगा के फिर भोजन करना । एसा करते करते वारह वर्ष बीत गये । एक दिन दोपहर तक नव मनुष्यों को प्रतिवोध किया । लेकिन दशवाँ एक सोनी (सुनार) तैयार नहीं हुआ। जीमने का समय हो गया था । भोजनवेला बीत गई थी। लेकिन की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार दश को प्रतिवोधन दे तव तक किस तरह से जीमे ? गणिकाने ठंडी हो रही रसोई तीन तीन बक्त फेंक दी। चौथीवार रसोई वनाके खुद नन्दिपेण' को वुलाने गई । और उतावल से कहा गया कि दशवाँ कोई प्रतिवोधन प्राप्त करता हो तो दशवाँ तुम खुद तो हो।