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पडा रहा।
व्याख्यान-पच्चीसवाँ
३२५ ... और आज छिपी रीत से उनका उपयोग करने का उनको मौका मिला था । दारू (शराब) का नशा उनको खुव चढा, देह का भान नहीं रहा । वस्त्र अस्त व्यस्त हो गये । उल्टीयां होने लगी और इसी गन्दगी में लोटती एडी रही।
अकस्मात नाटक वन्द हुआ और अपाढभूति घरः आया । अपनी पत्नियों का एला वर्तन देखके तिरस्कार उपजा । एसी स्त्रीओं का संग नहीं चाहिये एसा निश्चय कर लिया । .. नशा उतरते ही स्त्रीयां मान में आई। पति के निश्चय का ख्याल आते ही पश्चाताप करने लगी। लेकिन अब क्या हो सकता था।
उनकी आजीजी (प्राथना) से एक नाटक भजके' उसकी तमाम आमदनी इन लोगों को देकर चले जानेका . . विचार अपाढभूति ने किया । ।
भरत चक्रवर्ती का खेल सजा जा रहा था। राजा, रानी तमाम नगरजन नाटक देख कर मुग्ध बनते जा रहे थे। . इसमें से अरीसा भवन (दर्पण भवन) में से जैसे. अंगूठी निकल जानेले भरत महाराज को केवलज्ञान हो मया था उसी तरह इल नट अपाढभूति को भी एला ही केवलज्ञान हो गया । पांच सौ राजकुमारों के साथ उनने . फिरसे संयम स्वीकारा और आत्मसाक्षात्कार किया। . .: . श्रेणिक राजा के पुत्र लन्दिरेण एक दिन भगवान महावीर की वाणी सुनके संयम लेनेको उत्सुक हो गये । अगवानने चेतावनी दी कि अभी तेरे भोगावली कर्म का.