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प्रवचनलार कर्णिका सूतकाल में तो जो संतोषी और धर्मी हो वही सुखी कहलाता था।
हाथीके दांत चवाने के जुदे और खाने के जुदे होते हैं इसी प्रकार लुच्चा आदमी की वातमें और वर्तन में फेरफार होता है।
दुःखी को देख करके हृदयमें जिसके दया नहीं प्रगटे यह मनुष्य नहीं है। धनसे सुखी मनुष्य भी जो असंतोषी हो भिखारी से भी महा दुःखी कहलाता है।
जव जव विषय रस बड़े तब यह मानना कि दुःख आनेकी निशानी है।
जगतके सभी जीवोंको शासन का रसिया बनने की भावना तीर्थकर नामकर्स का वध करने वाली होती है
और अपने कुटुम्वीजनों को शासन का रसिया-आराधक वनाने की भावनासे गणधर नामकर्म बंधता है। नामकर्म की प्रकृतियों में गणधर नासकर्म जुदा बताया है परन्तु तीर्थंकर नामकर्म के अन्नर्गत समझना ।
अपने पूर्वजोंने जो मन्दिर आदि बनायें हैं उनको रक्षित रखना अपनी फर्ज है। नये बंधाने की अपेक्षा पहले पुराने मन्दिर के जीर्णोद्धार का लक्ष होना चाहिए क्योंकि उसमें लाभ अधिक है। - इन्द्रियों के विपयसुख खराव हैं। इन सुखोंमें नहीं फंसना चाहिए । जो दुःख आता है वह कर्मजन्य है यह समझने के बाद दुःख हैरान नहीं करता है। ... कर्म खिपाने के लिये सुन्दर सामग्री होनी चाहिए. सुंदर साधन होने चाहिए और सुंदर स्थान भी चाहिए।