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व्याख्यान - पच्चीसवाँ
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किन्तु एक श्रद्धा नहीं थी । एक श्रद्धा अभाव जीवन कितना विगड जाता है उसका ये नसूना जानने जैसा है ।
अषाढाचार्य नामके ये आचार्य खूप ही विद्वान और तपस्वी थे | अनेक शिष्यों के ये गुरु थे । लेकिन किसी कमनसी पलमें ये श्रद्धा भ्रष्ट हो गये ।
बात है कि उनका एक शिष्य सरने लगा । मरते समय उनने उसके पालसे वचन लिया था कि देवलोक में जाने के बाद मेरी खबर लेना और मुझे कहने योग्य कहके मेरी सेवा करना ।
मृत्यु पाके देवलोक में गये ये शिष्य गुरुके वचनको भूल गये । गुरुको शंका हुई कि शिष्य चारित्रवान होनेसे देवलोक में ही गया होना चाहिये | परन्तु वह आया नहीं | इसलिये मुझे लगता है कि देवलोक जैसा कुछ: होगा कि नहीं ? ये निश्चय से नहीं कहा जा सकता
संजोगवशात् तीन चार शिष्यों के पासले भी एसे वचन लिये थे | फिर भी देवलोक में जाने के बाद शिष्य ये वचन भूल गये । और कोई भी नहीं आये | इससे अपाढाचार्य की शंका द्रढ बनी । और मनमें निश्चय किया कि देवलोक जैसा कुछ भी नहीं है । इसलिये धर्मध्यान तप संयम वगैरह सब मिथ्या है । धर्म श्रद्धा चलितहो के एक रात सांधुता को त्याग के घर तरफ चल पडे ।
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- देव हुये चौथे शिष्यने ये हकीकत अवधिज्ञान से जान ली | अपना वचन खुद ही नहीं पालने से . बहुत, दुःख हुआ । लेकिन, आखिर में गुरुको सत्यमार्ग पर लाने के लिये कटिवद्ध वना ।
अपनी देव मायाके द्वारा इसने मार्ग में नाटक खंडे