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व्याख्यान-सातवाँ
- १२५.. के रूप करके कदर्थना करते हैं । मुर्गों की तरह परस्पर
लड़ाते हैं। तलवार की धार जैले अलिपन के वनमें ... चलाते हैं । हाथ, पैर कान, ओठ, छाती, आंख वगैरह
भालासे छेद डालते हैं। . . . . . - ये परमाधामी नारकियों को जब कुंभी में डाल कर पकाते हैं तव अति दारुण यातना से वे नारकी पांचसौ योजन तक उछलते हैं। और जब नीचे गिरते हैं तो गिरने के साथ ही वाघ सिंह वगैरह सव विकुर्वो उन जीवों को खत्म कर डालते हैं। (फिर भी ये जीव मरते नहीं हैं)। जीवों की यह कदर्थना (दुरी दशा) देखकर के परमाधामी खूव प्रसन्न होते हैं। ...
पंचाग्नि तप वगैरह अज्ञान कट करनेवाले मनुष्य मरके अतिनिर्दय और पापात्मा परमाधामी वनते हैं । वे दुखी दीन और तड़फते नारकियों को देखकर खूब खुश होते हैं। खुश होकर के अट्टहास्य करते हैं । पसी कुतूहल वृत्ति से नारक के जीवों को दुख देकर के आनन्द में मग्न वनने वाले पमाधामी देव मरकर के "अंडगोलिक" नाम के जल मनुष्य होते हैं । उनको उनके भक्ष्य का लालच देकर के उनके शिकारी किनारे लाते हैं और यन्त्र में डालकर के छ महीना तक पीलते हैं। इस प्रकारकी घोर कदर्थना सहन करके वे मृत्यु प्राप्त कर के सीधे नरकमें जाते हैं। और वहां वे भी दूसरे परमाधामीयों के द्वारा वड़े दुःख प्राप्त करते हैं ।
नारकीयों को सदा दुःख और दुःख ही होता है। फिर भी शाताकर्म के उदय से, जिनेश्वर भगवंत के.जन्म: कल्याणक आदि प्रसंगमें, अरिहंत वगैरह के गुणों की