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प्रवचनसार कर्णिका
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... .. चंडकौशिक नाग जिसके ऊपर दृष्टि फेंकता था। उसकी वहीं की वहीं मृत्यु हो जाती थी। ऐसे विषधर . को प्रतिवोधने के लिये भगवान श्री महावीर देव उन जंगलों में पधारे। ठेठ सर्प के विल के पास जाके प्रभु खड़े हो गये। सर्प ने कई वार दृष्टि फेंकी किन्तु इस मानवी को कोई असर नहीं हुआ। क्योंकि ये मानवी नहीं किन्तु महामानवी थे। विषधर गुस्ले हो गया । क्रोध का दावानल सुलग उठा। तीव्र दृष्ठिपूर्वक भगवान महावीर के चरण में डंख दे दिया।
इसके मन में ऐसा था कि मेरे कातिल जहर से यह मानवी क्षणभर में मृत्यु को प्राप्त होगा। लेकिन गजव! जहर का कुछ भी असर नहीं हुआ। इसकी वही काया और वही प्रसन्नता। और उसका वही निर्मलभाव।
यह दृश्य देखकर विपधर विचार में पड़ गया। वहां तो करुणामूर्ति भगवान श्री महावीर मधुर वाणी से बोलते हैं कि हे चंड कौशिक ! जरा समझ ! बुझ, वुझ! तू कौन . था? उसका तू विचार कर । एक वक्त तू पवित्र साधु था। लेकिन क्रोध करने से मरा और विषधर वना । संत मिटके सर्प बना।
भगवान के सुख से प्रेमप्रकाशमय मधुरवाणी सुनकर सांप को जाति स्मरण ज्ञान हुआ। परभव का स्वरुप आंख के सामने दिखाने लगा। भारे पश्चाताप हुआ। क्या करूँ? क्या कर डालूं? ऐसे अनेक विचारों में तल्लीन वन गया। वहीं का वहीं अनशन कर दिया। मुख को दिल में रख के काया चौंसिरा दी (त्याग कर दी)।
दही दूध के मटका भर के जाते आते लोग नागदेव
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