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व्याख्यान-चाईसवाँ
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वाहरे वाह! धन्य है! मेरे भारतवासियों! ऐसी फेशन से स्वच्छन्दता से मलकने वाले पुरुष-स्त्री क्या भारतमाता की मश्करी नहीं कर रहे ?
उद्भट वेशमें फिरनेवाली शिक्षिकायें वालाओं को .. सुसंस्कारी बना सकती हैं ?
भव से भयभीत वने उसे ही भगवान का शरण मिले। भव यानी संसार । संसार के विषयों से जो डरे वही भगवान का भगत ।
संसार के विषय भोग के समय बोले तो भी ज्ञाना'वरणीय कर्म का वध होता है।
अपने वस्त्र और गुरु के वस्त्र एक साथ नहीं धोये जा सकते। अगर धोने में आवें तो गुरु को अशातना लगती है।
लिखा हुआ कागज चाहे जहां नहीं डालना चाहिये। जो डाला जाय और पैर से छू जाय तो भी ज्ञानकी आशातना लगती है। लिखी हुयीं अथवा छपी हुई किताबें पस्ती (रदी) में नहीं बेचना चाहिये । लिखे हुये कागज को भीजा हुआ करके फुग्गा बनाके फोडना नहीं चाहिए । जो फोड़ने में आवें तो ज्ञान की अशातना होती है। दिवाली के समय दारखाना बनाने वाले को कागज बेचने से पाप. लगता है। पुस्तक के ऊपर अथवा अखवार के ऊपर नहीं वैठना चाहिये । पुस्तकको उसीका (तकिया) बनाके नहीं सोना चाहिये।
आगम ग्रंथों को वांचके उनका उलटा अर्थ करने से महाभयंकर विराधना होती हैं।
जेसलमेर के भन्डारमें रखीं युस्तके हजार पन्द्रहसौ