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व्याख्यान-अठारहवाँ विचार करने लगे कि भाव-दीपक समान प्रभु चले गए एसा विचार के सव दिया जलाते हैं इसलिये, दिवाली प्रगट हुई। दूसरे दिन सुबह गौतम स्वामीको केवलज्ञान हुआ वहाँ से नूतन वर्ष का प्रारम्भ हुआ। ये है भावना का प्रभाव ।
संयम साधना के सिवाय दूसरे कहीं भी मन, वचन और काया को नहीं वापरें वही सच्चे साधु हैं । ... आज धर्म करने वालों में बहु भाग इस लोक और परलोक में भौतिक सुखकी प्राप्ति की इच्छासे और समझे बिना धर्म करता है। .... जिसकी भक्ति करते हो उसे पहचान के भक्ति करो।
रोज दाल-भात, रोटी-साग खानेवाले पूछते हैं कि साहव ! प्रतिवर्ष कल्पसूत्र ही क्यों वांचते हो? एसे कहने वाला का पापोंदय है।
__संसार की हजाम-पट्टी आकरी (कठिन) नहीं लगती किन्तु धर्म में कठिन लगती है।
साधु जीवनकी आराधना विना अनादिकाल से लगा हुआ संसार छूटने वाला नहीं है। .. मानसिक दुःख रागादि से होते हैं। कायिक दुःख रोगादि से होते हैं । इन दोनों में जुड़ जानेसे वाचिक दुःख होता है।
भोगावलि कर्म का तीन उदय होनेसे इस भोग के भोगे विना जाने वाला नहीं है। एसा मानके तीर्थकर भोगते हैं।
भोगावलि जोरदार न हो और चारित्र मोहनीय टूटे तब दीक्षा उदयमें आती है।