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प्रवचनलार कर्णिका पुन्योदय ले दीक्षा लो, पीछे भी जो एसा हो कि ये मैं कहाँ आ गया ? तो एसा मानना कि पापानुवन्धी पुन्योदय है।
सत्वशालियों के लिये अपवाद नहीं होता है। अपवाद तो हमारे जैले पामर के लिये है। .. किसी भी विचारमें तल्लीन हो जाने से नींद नहीं ‘आती है।
. आपत्ति के पर्वत खड़े होने पर भी रोम भी नहीं फ़रके उसका नाम है श्रमण जीवन ।
_शरीर ये वन्धन है। यह वन्धन छोड़ने लायक है। एसा हृदय से जो. माने वही वन्धनको छोड़ने का प्रयत्न कर सकता है। - शरीर को धर्म का साधन बनाये विना यात्मा का उद्धार नहीं है। काया के मोहको तिलांजली देने के लिए .. श्रमणावस्था है। चौदहवें गुण ठाणामें अयोगो केवली भी शरीर कहलाते हैं। - आत्मा की तमाम शक्तिको खर्च करके धर्म के अल्प भवमें ही मोक्ष मिल सकता है।
। जो शक्ति मुजव तप करता है उसकी काया में रोग नहीं आता है। ___ वैमानिक पनेमें जानेवाले श्रावक साधुपना की भावना वाले होते हैं। - तीर्थंकर देवोंकी काया कमल से भी अधिक कोमल होती है । लेकिन दीक्षित होने के बाद वज्रसे भी अधिक कठोर बन जाती है ।
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