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व्याख्यान-इक्कीसवाँ
- २३५.
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ठंडे दिलसे वंकचूलने जवाब दिया कि मुझे खबर है। मालवपति का ये अन्तःपुर है। आप उनकी महारानी हो। मेरी. कला की परीक्षाकरने आया हूं। आप जग गई तो अव में पीछे चला जाऊंगा। ..... . ।
. स्पष्ट वात सुनकर आश्चर्यमुग्ध बनी रानीने कहा किः "तू चोर हो एसा मुझे नहीं लगता । चोरकी आकृति और 'भापा अलग होती है। ये तेरा सव्य ललाट ही बता देता है कि तू चोर नहीं है । तेरा नाम क्या है ? . .
.. महाराणीजी! मेरे नाम की तुम्हें क्या जरूरत है ? मेरा नाम चोर! तू किस जाति का है ? . . .
। मैं क्षत्रिय हैं। . क्षत्रिय चोरी करता है ?
हां, महारानी, क्षत्रिय राज्य करें, युद्ध करें और अवसर आवे तो चोरी भी करें।
तुझे क्या चोरना है ? धनमाल!
तुझे जितना धनमाल चाहिये मैं दूंगी लेकिन मेरा एक काम करना पड़ेगा।
महारानी, मुझसे बनेगातो करूंगा। न वने एसा नहीं है। ... . . . . .
- तो अवश्य करूंगा। - रानीने अपना कंचुकी बंध वांध लिया । और पलंग' के ऊपर से उतर के दीपक पर ढंके हुये ढक्कन को दूर किया । सुहावने प्रकाश से खंड शिल मिल करने लगा। इस प्रकाश में बंकचूल की गौर काया अधिक दीपने लगी। इसके वांकडिया वाल मस्त लगने लगे। इसकी सुद्रढः