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प्रवचनसार-कणिका
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की बत्तीस पत्नियाँ और माता भद्रा शेठानी ये सब पुन्य शाली आज पहने हुए वन और अलंकार दूसरे दिन नहीं पहनते थे। भोजनमें नित्य नयी नयी रसवती जीमते थे। पानी मांगने पर दूध हाजिर होता था। लेवा करनेवाले .. दासदासी प्रति समय हाजिर रहते ही थे। सात भूमि . प्रासादमें से कभी भी नीचे उतरने का काम नहीं था। दर्शन करने के लिये जिन मन्दिर भी प्रासादमें ही था । ...
इस प्रकार मानवलोक में बसने पर भी देवत्व के गुण का आस्वाद मानते मानते वर्षों बीत गये । फिर भी खवर नहीं हुई कि काल कहां गया। सदा प्रफुल्लित वदने रहते अपने पुत्रको देखकर माता भी सन्तुष्ट रहती थी। परन्तु आज उदासीनता में गमगीन मुखार विन्दवाले अपने पुत्रको देखकर माता पूछने लगी कि हे बेटा, एसा तुझे क्या दुख लग गया कि तू उदास है। कुछ नहीं माताजी! ना, एसे नहीं चलेगा। जो हो उसका खुलासा करे । माताने आग्रह पूर्वक कहा तव शालिभद्र कहने लगे कि माता, इस संसार में से मेरा मन उठ गया है। पुत्रका एसा जवाब सुनकर स्तब्ध बनी हुई भद्रामाता पूछने लगी कि एसा क्यों? एका एक क्या हया? माताजी "ये तो अपने स्वामी हैं। ये आपके शब्दों ने ही मुझे वैराग्य वासित वना दिया है । जबतक मेरे सिर पर स्वामी हैं तवतक मेरे पुन्य की कमी है। स्वामी है। इस खामी को टालने के लिये ही मुझे संसार छोड़ना है। शालिभद्रजी ने माता के पास स्पष्ट खुलासा कर दिया। यह बात सुनते ही भद्रामाता बेवाकला (बावरी) वन गई। खूब दुखी हो गई। हे दैव, ये तूने क्या किया? श्रेणिक को मेरे घर क्यों भेजा? मेरे सुख के रंग में भंग क्यों.पडा? क्या करूं? क्या ना करू?: .
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