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प्रवचनसार कर्णिका
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उनको देवोंकी संतुष्टता का हर्प नहीं था किन्तु भक्ति की 'एकतानता का हर्प था ।
समकिती आत्मा को देव प्रसन्नता की कोई कीमत ‘नहीं होती।
आज तो जरा भी देव चमत्कार दिखाई दे कि लोग प्रभुभक्ति का लक्ष चूक करके देव चमत्कार के प्रचारक वन जाते हैं। क्योंकि सच्ची भक्ति की पूर्णता अथवा सफलता में अधिष्टायक देवके चमत्कार का ही लक्ष बन्ध गया है।
जिसे चारित्र लेने की भावना नहीं है वह श्रावक नहीं है।
कोई पूछे कि भाई ! क्यों चारित्र नहीं लेते हो? तव कहे कि क्या करूँ ? भारे कर्मी हूं इसीलिये चारित्र मेरे हृदय में नहीं आता है। हृदय में जल्दी कर आवे 'उसके लिये प्रयत्न करता हूं।
श्रावक तुच्छ फलका त्यागी होता है। जिसमें खाने का थोड़ा हो और फेंक देनेका वहुत हो उसे तुच्छ फल कहते हैं।
वेगन (लंगणा) आदि बहुवीज है। आकाश में से जोकरा (ओले) गीरते हैं वे अभक्ष्य हैं। मिर्च, नींबू वगैरह अथाणा (अचार) वरावर सुखाये विना हों तो वे नहीं खाना चाहिये।
मुरव्वा आदि चासनी कर के किया हो तो वह खपै (यानी खाने लायक है । उस के अलावा अगर खांड (शक्कर) मिला के तैयार किया हो तो वह सात दिन से अधिक दिन का नहीं खपता है। अभक्ष्य वस्तुओं में दो इन्द्रिय जीव हो जाते हैं इसलिये वह खाने लायक नहीं हैं।