________________
व्याख्यान-बीसवां
अनंत उपकारी शास्त्रकार परमपि फरमाते हैं कि जिसे श्री जिनेश्वर देव की वाणी अच्छी नहीं लगती. वह जीव .. समकिती नहीं कहा जा सकता है।
धर्म सुनने पर भी, धर्म समझने पर भी धर्म करने वाला जो समकित रहित हो तो वह वास्तविक धर्म नहीं है।
अपनी भावना दुखमुक्त होनेकी नहीं रखके कर्म भुक्त होने की रखनी चाहिये ।
संसार दुखी था और है। तथा दुखो रहनेवाला भी है।
जीव की लायकात प्रगट हुये विना जीव का कभी भला होने वाला नहीं है।
निन्दा को खमना (माफ करना) सरल है किन्तु प्रशंसा को पचाना मुश्किल है।
तीर्थकर परमात्मा का आत्मा सर्वोत्तम और 'शिरोमणि है।
समकिती देवों को तीर्थंकर परमात्मा का सहवास इतना अच्छा लगता है कि ये देव पशु, पक्षी अथवा वालक आदि का रूप कर के आकर के खेल जाते हैं। . अपनी पायमाली (विनाश) तो खास कर के पापानुवन्धी पुन्य से हुई है। जैन शासन में शास्त्रयोग की अपेक्षा सामर्थ्य योग की महत्ता है।