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व्याख्यान - उन्नीसवाँ
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जीवों में से एकाद अथवा दो वच जायें वे सन्तान तरीके जन्म पाते हैं ।
एक मनुष्य रूई की नलिका बनावें और चकमक से उसे सुलगावे तो इकदम वह जल जाती है उसी प्रकार एक वक्त के संभोग में लाखों जीवोंकी हिंसा होती है ।
धर्मपरायण एसे तुंगिया नगरीके श्रावकों के गुणगान महापुरुषोंने गाये हैं । उन श्रावकोंके पास अढलक संपत्ति थी । त्रुद्धि सिद्धि की कोई कमी नहीं थी ।
सेवक वर्ग सेवा के लिये तत्पर था । फिर भी वे जीवन में मुख्यतया तो धर्म को ही मानते होने से उनका वर्णन पवित्र एसे भगवती सूत्र में किया है ।
पुण्य नाम के शेठ संपत्ति संबंध में सुखी नहीं होने .. पर भी लाधर्मिक को जिसाये बिना जीमते नहीं थे वे अनर्थ दंड के व्यापार से मुक्त थे ।
जो आत्मा जीवा जीवादि तत्व को नहीं जानता वह संयम को क्या जान सकता है ?
मनवाले जीव को संज्ञी कहते हैं और मन विना के जीव को असंज्ञी कहते हैं ।
आहार, शरीर इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन ये छ: पर्याप्ति हैं । ये छ: पर्यादित जीन यर्भ में घूरी करता है ।
अन्त सुहूर्त के असंख्याता भेद हैं । नव समय को " एक जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । और दो घडीमें एक समय न्यून कालको उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। आंख मीच खोलें इतने में तो असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं ।