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प्रवचनसार कर्णिका
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शालिभद्र के है शालिभता एकी
तेजीको टफोर वस होती है। वोलो तुम्हें कवूल है? .. 'पत्नियाँ समझीं कि स्वामिनाथ, मजाक कर रहे हैं । यो :
कहीं चले जानेवाले नहीं है । इसलिये उनने कहा हां, हां ‘कबूल है।
तव धन्नाजीने कहा कि लो इतनी ही देर ! ये चला! उसी समय सवको त्याग करके चल निकले। .
फिर तो आठों की आठ खुव विनती करने लगी। कालावाला करने लगी मतलब गिड़गिड़ा ने लगी ओर हंसते हुए कहा गया उसको माफी मांगने लगी। लेकिन अव माने तो धन्ना नहीं। आगे धन्नाजी चले जा रहे हैं । पीछे देवांगना जैसी आठों पत्नियाँ रूदन करती हुई भूलकी माफी मांग रही थीं।
धन्नाजी आये शालिभद्र के भवन के बाहर । वहाँ खड़े हो के आवाज करने लगे कि हे शालिभद्रजी, एसें । तो कहीं त्याग होता होगा? चलो मेरे साथ ! मैं तो एकी साथ त्यागके आया हूं। दोनों सर्व त्यागके पंथ चले गये। "धन्नो शालिभद्र गुणवंता त्यागी लक्ष्मी अपार । एके त्यागी आठ तीहा तो दूजे वत्रीस नार ॥"
दोनों पुण्यात्माओंने श्रमण भगवान श्री महावीरदेव . के चरणकमल में जीवन समर्पण कर दिया ।
अमृत झरती भगवान की मधुर देशना सुनके दोनो "खूव प्रसन्न हुये । देशना पूरी हुई। सव विखरने लगे। लेकिन ये दोनो पुण्यशाली वैठे ही रहे ।
प्रभुको हाथ जोड़ के कहने लगे कि भगवन्त, हमारा 'मनोरथ दीक्षा लेनेका है । तो कृपा कर के हमको दीक्षा देकर धन्य वनावो । . . . . . . . . . .