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प्रवचनसार कणिका: ...
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फिरना है। यह परिनसण अटकाने के लिये भगवान की तरह अपत का भी त्यागी बनना पडेगा। ... .
लदाचार पूर्वक का रूप प्रशंसा करने लायक है। दुराचार पूर्वक का रूप निध है। रूप किसी बाह्य उपचार से नहीं मिलता है। किन्तु पूर्व की आराधना से मिलता है। - कर्म के हिसाब से जो स्थिति अपन को मिली हो । उसमें संतोष सानना चाहिये। उस स्थिति को सुधारने के लिये धर्म करना चाहिये ।
मगधाधिपति श्रेणिक महाराजा पुन्य के भेद को समझने वाले थे। वे राज्य सभामें बैठके कहते थे कि राज्य का पुन्य अच्छा है । परन्तु सच्चे पुन्यशाली तो शालिमादजी हैं। मेरे राज्य एसे पुन्यशाली जीव हैं उनके प्रताप ले मेरा राज्य शोभता है।
शुन्यशाली शालिभद्र को देखने का राजा विचार .. करने लगे। परन्तु राज्यकार्य में तल्लीन बने रहने से फिर भूल जाते हैं। . इल तरफ फिली व्यापारीने प्रयत्न कर के सोलह रत्न कम्बल तैयार की। उन. रत्न कंवलों को बेचने के लिये विविध नगरों में फिरते थे। किन्तु व्यापारियों की रत्न कंवल बहुत ही मूल्यवान होने से खपती नहीं थी। परन्तु स्थान स्थान में मगधाधिपति श्रेणिक महारांजा की होने वाली प्रसंसा से आकर्पा कर के के व्यापारी राजगृही नगरी में आये । और एक पांथशाला में उतरे। सुबह स्नान कर के शुभ शुकन देखकर के वे व्यापारी श्रेणिक महाराजा के पास आकर के नमस्कार करने लगे। • .. महाराजाने पूछा कि हे महानुभाव, कहां से आये?