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व्याख्यान-सोलहवाँ विचार कर के वोली कि देखो महाशय, मेरी बत्तीस पुत्र वधुयें हैं। इस लिये तुम बत्तीस कंवल लाये होते तो ठीक होता । लेकिन खेर । जो लाये सो ठीक । भंडारी, जाओ ये सोलह कंबल लेकर उनकी कीमत की सुवर्ण मुद्रा ये सौदागर कहे उतनी उसको चुकादो । जैसी आज्ञा । एसा कहके भंडारी ने व्यापारी को साथ ले जाके कीमत चुका दी । व्यापारी के हर्ष का पार नहीं रहा । .. भद्रा माताने सोलह कंवल के बत्तीस टुकड़ा करके बत्तीस पुत्रवधुओं को एक एक टुकड़ा दे दिया । इन पुत्र वधुओंने भी स्नान करके शरीर पोंछकर रत्नकंवलों को डाल र्दी। . . चेलणारानी की अति हठके कारण श्रेणिक महाराजाने सेवकों द्वारा कंवल के सौदागर की तलाश कराई। तो उनको मालूम हुआ कि सोलह कंवल भद्रा माताने खरीद ली हैं और पुत्रवधुओंने उनका उपयोग केवल शरीर लूछने तक ही करके कंवलों के टुकड़े फेंक दिये हैं। श्रेणिक महाराजा को दिलमें गौरव उत्पन्न हुआ कि ऐसे वैभवशाली भी हमारे नगरमें बसे हुए हैं। इसके ऊपरसें समझना है कि भारत के राजा अपने नगरजनों को वैभवशाली वना हुआ देखकर के उनका वैभव छुड़ा लेनेकी बुद्धि नहीं रखते थे किन्तु अपने राज्य का गौरव मानते थे। क्योंकि उस समय के भारत के राजा भी आस्तिक संस्कारों से रंगे हुए थे। जिसे जो कुछ मिलता है. वह उसके पुण्य से
ही मिलता है। पुण्योदय से. मिली लक्ष्मी को छुड़ा लेने . : पर भी पापोदयवालों के पास टिकती नहीं है और पुण्य
शालियों की कम नहीं होती है। इसलिये पुण्यशालियों .