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प्रवचनसार कणिका .
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लगा। धीरे धीरे राज मार्ग से गुजर रहा था। वहां सात : मजला वाले प्रासाद के तीसरे मजले पर बैठी महादेवी भद्रा शेठानी की द्रष्टि इस व्यापारी के ऊपर पड़ी । व्यापारियोंने एसी भव्य महलात देख कर प्रासादके द्वारपाल से पूछा यह महान इमारत किसकी है ? द्वारपाल ने प्रत्युत्तर .... दिया कि यह भवन गोभद्र शेठ के सुपुत्र शालिभद्र जी का है। वे अपार वैभवशाली हैं।
व्यापारी को जरा आशा बंधी। देखें तो जरा प्रयास . तो करूं । लग गया तो तीर नहीं तो तुका ।
सौदागर कहने लगा कि मेहरवान, मुझे इस भवन के संचालक के पास जाना है। तो उनके पास सुझे लेजाने की कृपा करो। द्वारपाल इस सौदागर को भद्रा माता के पाल ले गया। नमस्कार कर के सौदागर एक आसन पर बैठा । भवन की शोभा देखकर के सौदागर विचार करने लगा कि एसी शोभा कहीं भी नहीं देखी । राज्यभवनकी भी एसी शोभा नहीं थी। सचमुच में महा सम्पत्ति शाली लगता है। जो पुन्य हो और आशा फले तो ठीक । ___ मौन का भंग करते हुई भद्रमाता कहने लगी कि महाशय ! कहां से आये हो ? क्या लाये हो ? .. - माता जी, मगधाधिपति की कीर्ति सुन कर आशा से आया था । परन्तु आशा में निराशा परिणमी। ... - क्यों क्या हुआ? शेठानी ने पूछा । प्रत्युत्तर में .. सौदागर ने सब हकीकत कह दी। और साथ साथ कंबल की कीमत भी समझाई । रत्न कंवल देख कर के भद्रा माता विचार करने लगी कि आशा भरा आया हुआ सौदागर इस नगर से निराश होकर जाये ये ठीक नहीं है.। एसा