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________________ ૨૨૪ प्रवचनसार कर्णिका -रहते हैं । परमाधामी का और दूसरे नारकों का भय लगा ही रहता है । और भयले हमेशा शोकातुर रहते है ।' जैसे एक कुत्ता दूसरे कुत्ताको देखकर टूट पड़ता है । उसी तरह एक नारकी दूसरे नारकी को देखकर धमधमा के टूट पड़ता है । और युद्ध करता है । वैक्रिय रूप करके क्षेत्र भावसे प्राप्त हुये शस्त्रों को लेकर वे एक दूसरे के टुकड़े कर डालते हैं । मानो कतलखाना हो । क्रोध के आवेश से परस्पर पीडा करते होने से खूब. दुख अनुभवते हैं । और खूब कर्म वांधते हैं । सम्यग् द्रष्टि नारक दूसरों के द्वारा उत्पन्न की गई पीडा को तात्विक विचारणा से सहन करते हैं । और मिथ्यादृष्टि नारकों की अपेक्षा कम पीडावाले और कर्मक्षय करनेवाले होते हैं । फिर भी मानसिक दुख की अपेक्षा ये समकिनी नारक बहुत दुखी होते हैं । क्योंकि पूर्वकृत कर्मों का संताप जितना उनको होता है उतना दूसरों को नहीं होता है । इस प्रकार क्षेत्र वेदना और परस्पर कृत वेदना भोगने के उपरांत नीचे मुजब परमाधामी कृत वेदना भी. भोगते हैं —— नारक के जीवों को परमाधामी देव धधकती लोहे की गरम पुतली के साथ भेट कराते हैं । खूब तपाये हुये तीसा का रस पिलाते हैं । शस्त्रों से धाव करके - उसके ऊपर क्षार डालते हैं। गरम गरम तेलसे नहाते हैं । भड्डी में भूंजते हैं । भालाकी नोक पर पिरोते हैं । - कोल्हू में डालकर पीलते हैं । करवत से चीर डालते हैं । अग्नि जैसी रेती पर चलाते हैं । उल्लू, वाघ, सिंह वगैरह
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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