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________________ - - - व्याख्यान-सोलहवाँ: .. . . दूसरी तरह से नरका वासकी वेदनाओं के स्वरूप को दिखाते हुये जैन शास्त्रकार कहते हैं कि पूषका महीना हो, रातमें हिम गिरता हो, वायु सुसवाटा वन्ध वाता हो उस समय हिमालय पर्वत के ऊपर रहनेवाले वस्त्र - विना मनुष्य को जो दुख होता है इन सबले भी अधिकः . शीत (ठंडक) का अनंत गुना दुख नारक को होता है । . . भर ग्रीष्मकाल हो उसमें भी मध्यान्ह हो यानी दो प्रहर का समय हो सूर्य माथा पर यानी सिरके ऊपर तपता हो दिशाओं में अग्नि की ज्वालायें सुलगती हों. और कोई पित्तरोगी मनुष्य जैसी वेदना अनुभवता है उससे :अनंतगुणी उष्णताकी वेदना नारकी के जीवको होती है। . .. - ढाई द्वीपका लमय धान्य खाले फिर भी भूख नहीं मिटे एसी भूख की. वेदना नारकियों को हमेशा के लिये होती है । समुद्र सरोवर और नदियों का इच्छा मुजव पानी पिया जाय फिर भी नारकी के जीव का गला, तालू और ओंठ सूखे रहते हैं । . . . . . . शरीर पर छुरी से खणे फिर भी खणज मिटती नहीं है। एसी खणज नारकियों को होती है। अर्थात् छुरी से खुजावें फिर भी नारकियों की खुजली मिटती नहीं हैं। नारकी हमेशा परवश ही होते हैं । मनुष्य को अधिक से अधिक. जितनी डिग्री का ताव (बुखार) आता है उससे. भी अनना गुला ज्वर नारकी को हमेशा होता है। - अन्दर से हमेशा जलते ही रहें एसा दाह नारकी को हमेशा होता रहता है । अवधिज्ञान और विभंग ज्ञानसे . वे आनेवाले दुखको जान लेते हैं । इससे सतत भयाकुल
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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