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व्याख्यान-तेरहवाँ
" ९९ प्रशंसा की। भगवान महावीर परमात्मा उनकी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि हे गौतम, साधुओं की उपेक्षा भी . ये महानुभाव अधिक कष्टको सहन करके अडिग रहे हैं।
जैन शासन के अजोड प्रभावक जैनाचार्य श्रीमद 'विजयपादलिप्तसूरिजी महाराजने आठ वर्षकी नाल्यषय में दीक्षा ली । सोलह वर्षकी वयमें आचार्य पदवीले अलंकृत हुए थे। उनकी विद्वता और प्रवचन कुशलता चारों तरफ व्यापी हुई थी। वे पृथ्वीतल को पावन करते करते एक 'नगरमें पधारने वाले थे। उस नगर में ब्राह्मणों का जोर अधिक था। सच ब्राह्मण विचार करते हैं कि जो ये आचार्य महाराज गाँवमें पधारेंगे तो अपने अनुयाथी घट जायेंगे। बड़ा तोफान होगा। इसलिये नहीं आवे तो ठीक । एला विचार करके उनने एक युक्ति रची । एक घीका कटोरा पूर्ण भरके आचार्य महाराज के सामने भेज दिया । इस कटोरे के द्वारा ऐसा सूचन करने में आया कि जैसे यह कटोरा घी से पूर्ण भरा होने, ले जरा भी अवकाश नहीं है उसी तरह यह नगर पण्डितों से भरा होने से जगह के अभावमें आपको यहाँ पधारने की कोई जरूरत नहीं है। .... :: .. आचार्य महाराजने विचार करके शिष्य के पास एक हरे कांटे की शूल मंगाई। उस शूल को घीले भरे कटोरे में वीचोंबीच खोंस करके वही. कटोरा उनको पीछे भेज दिया। इसके द्वारा सूचन किया गया कि कटोरा में जैसे शूल समा जाती है इसी तरह आपके नगर में में भी समा जाऊंगा। इस तरह यह कटोरा पीछे आने पर लव ब्राह्मण शरमिन्दा हो गये। और समझ गये कि आने वाले आचार्य