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व्याख्यान-तेरहवाँ
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तंदुलिया मत्स्य वड़े मत्स्य की आंख की पलक में (पांपण में) उत्पन्न होता है। मात्र चावल के दाना वरावर उसकी काया होती है। वह हजार योजन की कायावाले मत्स्य को देखकर विचार करता है कि मेरी काया जो इतनी बड़ी होती तो एक भी छोटे मत्स्य को . जिन्दा नहीं रहने देता । सवको खाजाता । वह खा नहीं सकता है फिर भी इस तरह की विचारणा मात्रले मर के सातवी नरक में जाता है। - तप करने की शक्ति होगी तो मृत्यु के समय समाधि रहेगी। इसलिये तप करने की टेव (आदत) पाडनी.चाहिये। .. पाप-व्यापार का त्याग करना उसका नाम है लामायिका धन कमाना कीचड़ में हाथ डालने जैसा है और दान देने में उस धनका सदुपयोग करना कीचड़से लथपथ हाथको धोने के समान है।
लक्ष्मी वेश्या के समान है। पूर्वका पुण्योदय होगा तवतक लक्ष्मी रहनेवाली है और पुण्य खत्म होने पर वह चली जानेवाली है। जैसे वेश्या पैसा के आधीन है। पैसा मिले वहाँ तक ग्राहक को संभालती है। उस ग्राहक क पास पैसा खलास हो जाये तो दूसरे पैसादार ग्राहक के पास चली जाती है। इसी तरह लक्ष्मी अंगे पुन्याधीनता की हकीकत समझना । .
क्रिया विना का ज्ञान चन्दन के वोझ (भार) के समान है। कल्याण कारी आत्माको ज्ञान के साथ क्रिया का सुमेल साधना चाहिये । अष्टक जी में लिखा है कि धर्म करने के लिये धन नहीं कमाना है। परन्तु धनकी मूर्छा उतारने के लिये धर्ममें धन को खर्च करना है।