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व्याख्यान-सोलहवाँ .
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..- प्रसन्नचन्द्र राजर्षि मध्यान्ह समय सूर्यके सामने दृष्टि लगाके ध्यानमग्न खड़े थे। उस समय श्रेणिक महाराजा भगवान श्री महावीर देव को वन्दन करने जा रहे थे। मार्गमें इन राजर्षि को देखकर श्रेणिक महाराजाने उनको वन्दन किया। उसके बाद भगवान के पास गये । भगवान को वन्दन करके पूछने लगे कि हे भगवन्, मार्ग में जो राजपि ध्यान धर रहे हैं वे कौन गतिमें जायेंगे? भगवान ने कहा “अगर अभी मरें तो सातवीं नरक में जायें। यह सुनकर के श्रेणिक राजाको वहुत दुःख हुआ। क्षण भरके वाद पूछा कि हे भगवन, अव अगर वे मरें तो कहाँ जायें ? भगवानने कहा कि सुनों ! देवदुंन्दुभि बज रही। राजर्षि केवलज्ञान को प्राप्त हो गये हैं । यह सुनकर के श्रेणिक राजाके मुखसे धन्य धन्य के शब्द निकल पडे। इन राजर्षि की गति के विषयमें ऐसा क्यों बना होगा? यह हकीकत समझने जैसी है। राजर्पि को जिस समय भगवानने नरक में जानेको कहा उस समय राजर्पि, कृपण-लेश्यावंत थे । परंतु क्षणभर में लेश्यापरिवर्तन पाकर के शुक्ल लेश्यावंत वे हो जानेसे केवलज्ञान को प्राप्त हुए । ... तीर्थ दो प्रकार के हैं। स्थावर और जंगल । गिरनार
आदि तीर्थी को स्थावर तीर्थ कहते हैं और साधुमहाराज. तीर्थकर आदि जंगम तीर्थ कहलाते हैं। तर्थ की सेवा कम हो तो परवाह नहीं किन्तु अशातना तो नहीं होना चाहिये । . पांचों इन्द्रियों में आँख की कीमत वहुत है। अगर वह न हो तो जीवन पराधीन वन जाय । जिन मनुष्योंने जीवदया नहीं पाली, छ कायाकी रक्षा नहीं की वे चक्षुहीन होते हैं ।