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व्याख्यान-इसाँ चाद श्रावक साधु-भगवंतों की सेवा-भक्ति करता है। . उसके वाद घर जाकर के घरके सभी सदस्यों को इकट्ठा करके तत्व की बातें करता है, धर्म-गोष्टी करता है। आत्मकल्याण की वातें करता है।
- कर्म की मूल प्रकृति आठ हैं और उत्तर प्रकृति १५८ हैं। उसमें अस्थिर कर्म परिवर्तन पा सकते हैं। निकाचित कर्मों को तो भोगे विना छुटका ही नहीं है, अर्थात् कर्म तो भोगना ही पड़ते हैं ।
मैं भवी हु कि अभवी ? एसा विचार जिसको आता है वह भवी है। सिद्ध क्षेत्रकी जो स्पर्शना करते हैं वे भवी कहलाते हैं। तीर्थकर परमात्मा के हाथसे जो वर्षीदान लेते हैं वे भवी कहलाते हैं। . . ..जीवनमें भूल होना स्वाभाविक है। किन्तु हुई भूलका प्रायश्चित्त लेना उसमें महानता है। जिस तरह वालक.. मनकी सव वात वोल देता है, उसी तरह वालक की रीत के अनुसार शुद्ध भावसे की हुई तमाम भूलोंको कह देने .... से उन भूलों से लगे हुए पाप नाश हो जाते हैं । जन्मे वहां से लेकर आज दिन तक इस जीवनमें की हुई तमाम भूलों का प्रायश्चित्त लेना उसका नाम-भवालोचना है। सभी धर्म प्रेमियों को भवालोचना लेनी चाहिये, अगर न ‘ली हो तो गीतार्थ गुरु के पास जाकर लेना एसी मेरी तुम्हें खास भलामण, सिफारिश है।
- मन्हजिणाणं की सज्झाय में कहा है कि "करण दमो चरण परिणामों।" इन्द्रियों का दमन करने वाला और चारित्र के परिणामवाला भावश्रावक कहलाता है। राग तरफ जानेवाली इन्द्रियों को त्यांग रूपी रस्सीसे वांधना उसका नाम दमन है।........... . . ::