________________
व्याख्यान-ग्यारहवां
परम उपकारी शास्त्रकार परमर्षि फरमाते हैं कि 'आर्तध्यान करने से तिर्यंचगति बंधती है। रौद्रध्यान करने से नरकगति कर्म बंधता है। धर्मध्यान से मानवगति और शुक्लध्यान से मोक्ष मिलता है।
समझदार मनुष्य विचार करे कि "मैंने पाप किया है वह किसीने नहीं देखा" परन्तु अनन्त सिद्ध भगवंतो
ने देखा। विचरते केवलज्ञानियोंने देखा है और कर्म राजा. : सजा किये विना छोडनेवाले नहीं हैं।
ज्यों ज्यों इन्द्रियों के विकार अधिक त्यों त्यों दुःख भी अधिक और ज्यों ज्यों विकार कम त्यों त्यों सुख अधिक।
एक माताके पेटसे एक ही साथ जन्मे हुए दो वालकों में से एक होशियार और एक मूर्ख होता है। एक सुखी और एक दुःखी होता है एसा भी बनता है। इसके ऊपर से कर्म का अस्तित्व लिद्ध होता है। .. .
कर्मके हिसाब से ही संसारमें एक शेठ है, एक नौकर. है, एक पति हे, एक पत्नी है। एक शिष्य है, एक.सेव्य
है, एक सेवक है। एक सुखी है, एक दुःखी है। ये सब ... कर्म की लीला है.। . ....
.. . ... नारकी के भेद १४, तिर्यंच के भेद ४८, मनुष्य के भेद ३०३ और देवके भेद १९८ः ।.. ....::