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व्याख्यान - ग्यारहवाँ
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गई । अररर ! मन्दिर में ऐसा ! एसे वावा साधु !!! महादेव के भक्त गमगीन ( दुःखी ) हो गये । राजाका चेहरा उदास हो गया । उसी पल राजा-रानी राजभवन में चले. गये | वेश्या भी बाहर निकल कर चली गई ।
राजा वेश्यासे पूछते हैं कि यह क्या हुआ ? तूने क्या किया ? वेश्याने रातकी सव बात कह सुनाई। राजा के मनमें जैन साधुके लिये मान उत्पन्न हो गया । वेश्या के चले जानेके बाद रानी राजासे बोली- महाराज ये गुरु मेरे कि तुम्हारे ? यह बात सुनकर राजा खूब शरमिन्दा हो गया । प्रसंग देखकर के रानी जैन धर्म के तत्वों को राजा को समझाती है ।
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राजा के दिलमें से जैन धर्म के प्रति द्वेष नाश हो गया और जैन धर्म की विशिष्टता समझने से राजा जैन धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धालु बन गया और रानी प्रसन्न हो गई ।
महात्मा (जैन साधु) वहांले विहार करके गुरु महाराज समीप आये । वेश जलानेका प्रायश्चित मागने लगे ।
गुरु महाराजने कहा- महानुभाव ! धर्म के रक्षण के लिये की गई क्रियामें दोष होने पर भी उस दोषका पाप नहीं लगता और प्रायश्चित्त भी नहीं हैं ।
जैन शासन का गौरव बढाने में सर्व प्रयत्नशील बने रहो यही शुभेच्छा !.