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गन-गनी कौंजी थोडी थोडी पिलाइए। फिर दोपहर बाद मैं स्वयं आकर हालत देखकर दवा दे दूंगा." कहते हुए नब्ज देखी।
"सूर्योदय के समय जो घबड़ाहट रही, वह अब नहीं है। सब लोग अपने-अपने काम पर जाइए। मगर यहाँ किसी-न-किसी को रहमा होगा। मैं अपने पूजा-पाठ के बाद भोजन कर आ जाऊँगा। इस बीच भी यदि जरूरत पड़े तो कहला भेजें. तुरन्त आ जाऊँगा।" कहकर पण्डितजी अपनी पेटी लेकर चलने लगे।
"ये महारानी पद्मलदेवी हैं, महामातश्री को बड़ी बहू। आपको नहीं देखा था, पण्डितजी! और आपने भी नहीं देखा था। हमारे जगदल सोमनाथ पण्डितजी बहुत ही अच्छे वैद्य हैं। बहुत शान्त और सहनशील हैं, बच्चों जैसे साफ दिल वाले।"...यो शान्तलदेवी पालदेवी को पण्डितजी का परिचय दे ही रही थी कि तभी पण्डितजी बोले, "माँ अपने बच्चों के बारे में और क्या बताएगी? महारानीजी आ गर्यो, अच्छा हुआ। महामातृश्री की आकांक्षा पूरी हो गयी। आपको देखने के लिए बहुत छटपटा रही थीं।"
"देखकर आँखें तो तृप्त हुई, पण्डितजी, उनका आशीर्वाद सुन सा इतना कीजिएगा।" कहती हुई पाला पण्डितजी के पैरों में झुक गयी।
"हाय, हाय! न, न-ऐसा नहीं करना चाहिए। महारानीजी को ऐसा काम नहीं करना चाहिए।" कहते-कहते पण्डितजी पीछे हटे और बोले, "अपनी बुद्धि-क्षमता से जो कुछ किया जा सकता है वह करने का प्रयत्न मात्र हमारा है। फल ईश्वरेच्छा पर निर्भर है। उन्हें भी अपने अन्तरंग के विचार कहने का कुतूहल है। परन्तु वह नहीं हो पा रहा है। अब जो दवा दी है उससे बोल सकने को शक्ति आ जाएगी, ऐसी आशा है । जाग्रत होने पर विशेष प्रयत्न न करके भी अपने आप कण्ठनाल का स्पन्दन प्रधृद्ध हो, ऐसा प्रयास किया गया है। अच्छा, आप अभी यात्रा के ही वस्त्रों में हैं। एक प्रहर तक वे जागेंगी नहीं. इसलिए अपना-अपना काम कर लेने के लिए समय काफी है। अब आज्ञा हो तो..." पण्डितजी ने कहा।
"अच्छा पण्डितजी! पालकी में आये न?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"कितनी दूर है ! पालकी की आवश्यकता? मना करने पर भी राजमहल के सेवक मानते नहीं। चबूतरे से उतरते ही पालकी तैयार। हमें भी तो खाना हजम होना चाहिए न? कुछ चलेंगे तो सारे शरीर के लिए व्यायाम भी हो जाएगा। फुर्ती बनी रहती है।
पालकी से जल्दी पहुँच सकते हैं इसलिए यह व्यवस्था है। इसके अलावा ठीक समय पर आपको यहाँ रहना भी होगा न? वह द्वार पर रहे तो भूलने का मौका नहीं रहेगा। अच्छा पण्डितजी. आप हो आइए।" शान्तलदेवी ने कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 35