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भावुकता और आवेग का प्रकाश नहीं किया गया है। उन्होंने तो सत्य की खोज की जिससे उन्हें सत्य के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त नहीं हुआ । अपनी इस खोज में उन्हें कई एक रुचिकर परिणामों से साक्षात्कार करना पड़ा । किन्तु वे इनसे किसी प्रकार व्यग्र, हतोत्साहित और भयभीत न हुए । उन्होंने ज्ञानार्जन की पिपासा को शान्त करने तथा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए असीम साहस एवं वीरता का परिचय दिया । अन्त में वे 'सत्य' के उत्तु ंग शिखर पर पहुँच गये जहाँ से उन्होंने निज उद्यमशील शिष्यों के लिए संक्षिप्त किन्तु आत्म-पूरित शब्दों द्वारा अपने अनुभवों की तुमुल गर्जना की ।
जैसा हम पहले ('केन' और 'कठोपनिषद्' पर दिये प्रवचनों में ) बता चुके हैं, उपनिषदों के रचयिताओं का साधारणतः पता नहीं चलता; फिर भी हम अपनी दुर्बलता के कारण इन महान् साहित्यिक कृतियों के साथ किसी न किसी का नाम जोड़ने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार मध्याचार्य्य उनके दो शिष्यों, व्यास तीर्थ तथा श्री निवास, के मतानुसार पहले परिच्छेद में दिये गये गद्य - अनुच्छेद और छन्दोभाग 'वरुण' द्वारा मेंढक ( मण्डूक) के रूप में प्रदान किये गये । पौराणिक वृत्ति वाले तो इस प्रकार की व्याख्या से सन्तुष्ट हो जायेंगे किन्तु आजकल के विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र संभवतः इसकी सत्यता पर इतना विश्वास न करें ।
इससे माण्डूक्योपनिषद् के हमारे अध्ययन में एक बड़ी समस्या श्रा खड़ी होती है । प्रोफ़ेसर डॉयसन ( Deussen) जैसे कुछ व्यक्ति यह कहने का साहस कर बैठते हैं कि इसके बारह गद्य-अनुच्छेद भी श्री गौड़पाद द्वारा रचित हैं अर्थात् अपनी कृति 'दी फिलास्फ़ी आफ दी उपनिषद्द्ध' में उपरोक्त प्रोफेसर महोदय ने यहाँ तक लिखा है कि वस्तुतः 'माण्डूक्योपनिषद्' का अस्तित्व नहीं है बल्कि यह समूचा साहित्य ' प्रकरण-ग्रंथ' के अतिरिक्त और कुछ नहीं । अपन सिद्धान्त की पुष्टि में इन महाशय ने लिखा है कि श्री 'शंकरा 'चार्य्य' की दृष्टि में यह उपनिषद् भी नहीं वरन् एक प्रकरण-ग्रन्थ है क्योंकि
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