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सांकेतिक शब्दों द्वारा हमें इस सनातन तथ्य को भली भाँति समझाए । जो कुछ अभी तक कहा जा चुका है उससे आपको वेदों के विस्तृत - क्षेत्र और उनके ज्ञान - मन्दिर 'उपनिषद' के वास्तविक रूप का काफ़ी पता चल चुका होगा । कल से हम इस ग्रन्थ को प्रारम्भ करेंगे । निवेदन है कि अभी श्राप यज्ञ शाला में कोई पुस्तक न लेकर आएँ । हम सब काफ़ी पढ़े-लिखे हैं और हमें जीवन भर बहुत सी पुस्तकें उपलब्ध रहेंगी । यहाँ हमारा काम विद्वत्ता का प्रदर्शन करना नहीं है वरन् एक साथ मिल कर इस विस्मृत मन्दिर के अन्धेरे बरामदों में से होते हुए उस शक्तिशाली आत्मा के सामने उपस्थित होना है जो सनातन निस्तब्धता में अपना प्रभुत्व स्थापित किये हुए है ।
'मुक्तिकोपनिषद्' में संक्षेप से 'माण्डूक्य' पर सुन्दर प्रालोचना की गयी है । उसमें यह लिखा हुआ है कि केवल 'माण्डूक्य' द्वारा साधक मुक्त हो सकता है - माण्डूक्यम् एकं केवलं मुमुक्षूणां विमुक्तये ।
इस उपनिषद् में यद्यपि केवल बारह गद्य-मंत्र हैं तो भी यह समूचे जीवन पर विचार करता है । पूर्व और पश्चिम के दर्शन-ग्रन्थों में तो जीवन की जाग्रतावस्था का सामान्य रूप से विवेचन किया गया है परन्तु 'सत्य' की दृष्टि से दर्शन द्वारा मनुष्य के समूचे जीवन या अनुभव की व्याख्या की जानी चाहिए । श्री शंकराचार्य तथा श्री गौड़पाद दोनों ने इस विचार का समर्थन किया है | ‘माण्डूक्योपनिषद्' में स्वतः स्पष्ट रीति से महर्षि द्वारा समग्र जीवन का अन्वीक्षण करने के बाद सत्य की खोज करने में सहयोग दिया गया है ।
'माण्डूक्य' में चेतना की उन तीन अवस्थाओं का वर्णन किया गया है जिनमें से होते हुए हम अपने जीवन के अनुभव को प्राप्त करते हैं । इसमें इन अवस्थाओं का एक एक करके गहन अध्ययन किया गया है । जीवन के अध्ययन में महान् ऋषियों ने जिस तन्मयता एवं योग्यता का प्रदर्शन किया है वह मनुष्य की विचारधारा का एक अनूप अंग है । यहाँ किसी राग
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