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का उसके वास्तविक स्वरूप में प्रदर्शन करना है । ऐसे व्यक्तियों के लिए, जिनके हृदय भावुकता तथा मावेशपूर्ण मृदुलता से भरे पड़े हैं, इन महात्माओं के उपदेश मेंढक के टर्राने से अधिक महत्व नहीं रखते; किन्तु वर्षा के अश्रुः प्रवाहित और भयंकर बवंडर (तूफ़ान) वाले दिनों में जीवन के इन 'मेंढकों' की 'टर्र-टर्र' (अर्थात् पैग़म्बरों तथा मार्ग-दर्शकों का निष्कपट 'टर्राना') अवश्यमेव अनुपम शान्ति का सुन्दर संदेश लिये रहती है ।
वास्तव में वर्षा होने से पहले या बाद जब मेंढक एक स्वर से टर्राना प्रारम्भ करते हैं तो सांसारिक व्यक्ति यह धारणा कर लेते हैं कि संतप्त भूमि पर निकट भविष्य में वर्षा होगी। ठीक ऐसे ही, जब मनुष्य जान बूझ कर अथवा अज्ञानवश 'समाज को' संसार के कीचड़ में धकेल देते हैं, तो पृथिवी पर ऐसे दिव्य पुरुष आते हैं जो उस युग की घोर निन्दा करते तथा कठोर शब्दों में 'सत्य' का सन्देश देते हैं. जैसा कि गीता में किया गया है । 'संसार से प्रयाण करने से पहले ये दिव्य-सन्देश-वाहक मनुष्यमात्र में धर्म की पुनः स्थापना कर देते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्मशाला वाले महात्मा की व्याख्या के अनुसार माण्डूक्योपनिषद् का नाम ही विद्यार्थियों को अपनी बौद्धिक एवं मानसिक भूलों से परिचित होने के लिए तैयार कर देता है और उन्हें स्पष्ट रूप से यह चेतावनी दी जाती है कि 'सत्य' का संदेश देते हुए किसी प्रकार की भावुकता या आवेग का उसमें समावेश नहीं किया गया बल्कि 'सत्य' ज्यों का त्यों उनके सामने रखा गया क्योंकि यह अपने अकृत्रिम रूप में ही हमारे मन को आघात पहुंचा सकेगा ताकि हम निजी परिस्थितियों को समझते हुए इनके विरुद्ध पीठ ठोंक कर खड़े हो जायें ।
अभी तक तो हम "माण्डूक्य" के शीर्षक के रहस्य की ही व्याक्या करते रहे हैं। साहित्य के उपवन में आने वाले नवागन्तुकों को कदाचित् 'उपनिषद्' शब्द की रचना के विषय में कुछ जानने की उत्सुकता होगी । एक विचार से तो यह शब्द उप+नि+षद् के योग से बना है जिसका अर्थ है
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