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हाल ही में एक धर्मशाला म ठहरे हुए एक वयोवृद्ध संन्यासी से भेंट करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ । उन्होंने 'माण्डूक्योपनिषद्' के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो आधुनिक अनुसंधान के विद्वानों को शायद उचित न प्रतीत हो क्योंकि इसकी पुष्टि में कोई सन्तोषजनक युक्ति नहीं दी जा सकती । तो भी मैं महसूस करता हैं कि उस व्याख्या में पर्याप्त तथ्य पाया जाता है जिस से साधक द्वारा इस उपनिषद् का अध्ययन करने के लिए उपयुक्त मानसिक पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है। 'मण्डूक' एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है 'मेंढक' । इस तरह माण्डूक्योपनिषद का अभिप्राय मेंढक वाला शास्त्र हुमा । माशा है आप मुझे यह अर्थ करने की अनुमति देंगे । महात्मा ने मुझे यह भी बताया कि सब जीवों में से मण्डूक (मेंढक) को इस उपनिषद् के नाम के साथ जोड़ना क्यों उचिन समझा गया। उनके शब्दों ने मेरे मन और हृदय पर गहरा प्रभाव गला ।
मेंढक एक ऐसा जानवर है जो एक वर्ष म ६-१० महीने तक तालाबों और जौहड़ों के कीचड़ अथवा कूड़े आदि के ढेर में लोटता रहता है । इसका यह अर्थ हुआ कि मेंढक वर्ष के बहुत अधिक भाग में एकान्त सेवन करता रहता है मानो सभी चेष्ठानों, वासनाओं, इच्छाओं आदि का परित्याग करके वह ध्यान-मग्न रहता हो । वर्षा काल में मानो वह अपनी तीखी 'टर्र टर्र' के द्वारा वर्षा के अश्रु-प्लावित दिनों को कोई सुन्दर सन्देश दे रहा है।
मेंढक की उपमा एक सच्चे महात्मा से भी दी जा सकती है क्योंकि उसकी शारीरिक चेष्ठाएँ तथा प्रतिक्रियाएँ उस जैसी होती हैं। वह सदा सर्वसाधारण से पृथक् रहता और हिमालय की सुरम्य घाटियों में ध्यानावस्थित तरह कर अपना जीवन बिताता है । इस श्रेणी के पूर्ण ज्ञानी प्रात्मकेन्द्रित रह कर एकान्त में समाधि जमाये रहते हैं और वर्षा-ऋतु (चातुर्मास्य) में मैदानों में आकर अपना दिव्य सन्देश देते हैं। उनकी गर्जना विषय-वासना से लिप्त संसारियों को कठोर एवं अरुचिकर प्रतीत होती है। ये द्रष्टा भावमयी कविता या उल्लासपूर्ण गीत सुनाना नहीं जानते। उन्हें तो केवल सत्य
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