________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
उपनिषदों में जो 'सत्य' पवित्र गंगा की सुरम्य घाटियों में प्रकट किया गया वह अाज तक ज्यों का त्यों बना हुआ है।
वैज्ञानिक प्रगति, साम्प्रदायिक जाग्रति, राजनैतिक चेतना अथवा अन्तराष्ट्रीय परिस्थितियाँ सदा एक समान प्रभाव डालती हैं चाहे हमारे बाहर तथा भीतर के जगत से सम्बन्धित पदार्थों, विचारों और प्रगाढ़ निद्रा के अनुभवों के प्रति इनकी कैसी प्रतिक्रिया क्यों न हो। बाह्य जगत में हमने चाहे कितनी उन्नति की हो और इसकी बाहरी रूप-रेखा को हम भले ही पूरी तरह बदल सके हों तो भी निद्रा का हमारा अनुभव सदा एक समान रहता है। उपनिषदों में इस ध्येय की ओर संकेत किया गया है क्योंकि स्थूल जगत के हमारे जीवन में 'सत्य' का स्वरूप कभी बदलता नहीं ।
इस ग्रंथ को प्रारंभ करने से पहले उचित होगा कि हम 'उपरिषद' की रचना, विषय और कारिका पर कुछ प्रकाश डालें।
वेद चार हैं - ऋक्, यजुः, साम और अथर्व । ये सब तीन तीन भागों में विभक्त हैं-आदि-भाग को 'मंत्र', मध्य-भाग को 'ब्राह्मण' और अन्तिम भाग को 'उपनिषद्' अथवा 'अरण्यक' कहते हैं। 'मंत्र' भाग में मुख्यतः प्रकृति की महत्ता, शक्ति और दृश्यों को गीतों द्वारा वर्णन किया गया है । इन गीतों से हमें ठीक पता चलता है कि प्राचीन युग के महान् आर्य प्रकृति के असंख्य नाम-रूपों में अधिष्ठातृ शक्ति का दिग्दर्शन करते थे जो दयालु, सहनशोल और सदय होने के साथ-साथ शक्ति-सम्पन्न और कठोर शासक है । 'ब्राह्मण-भाग' में यज्ञ और विविध अनुष्ठानों को सम्पन्न करने से सम्बन्धित विधि को विस्तार से दिया गया है । 'अरण्यक' तो उस सत्ता का दार्शनिक विवेचन करते हैं जो दृष्ट संसार के अनेकत्व का मूल-प्राधार है । इनमें यह भी बताया गया है कि साधक किस प्रकार इस 'तत्त्व' को अनुभव कर सकते हैं।
अभी तक कुल मिला कर १८३ उपनिषदों का पता चला है जिनमें १२५ उपनिषदों को रूढिनिष्ठ स्वीकार किया गया है । इनमें दश उपनिषद्
For Private and Personal Use Only