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यूरोप के तर्क-शास्त्र तथा दर्शन-ग्रंथों की तरह भारतीय उपनिषद् धनी होने अथवा प्रशंसा प्राप्त करने के साधन नहीं बनाये जाते । पश्चिमी संसार में दर्शन-शास्त्रों की गणना आत्म-प्रसाद एवं प्रात्म-तुष्टि के साधनों में होती है। इसके विपरीत पूर्वी संसार का हिन्दु-दर्शन ऋषियों द्वारा आत्म-सन्तोष का स्रोत समझा जाता है। इस कारण ऐसा दिखायी देता है कि महर्षियों ने अपने आपको अलग रखते हुए सच्चे मन से इस बात को महसूस किया कि उनके द्वारा अजित ज्ञान वस्तुतः उनका अपना न था। जिन मंत्रों को अपने हृदय में सुनने का उन्हें सौभाग्य मिला, वे मानों किसी और ने उन्हें सुनाये थे । 'श्रुति' का अर्थ भी यही है- “जो सुना गया है।"
___ जो जो शिष्य अपने द्रष्टा (गुरु) द्वारा बताये हुए सत्य का अपने व्यक्तित्व में पूर्ण अनुभव करता गया वह यथासमय स्वयं द्रष्टा (गुरु) बनकर उन साधकों को इससे परिचित करता रहा जो इस तथ्य को जानने के लिए उसके चरणों में उपस्थित हुए । इस द्रष्टा ने वह तत्त्व अनुभव करने का श्रेय कभी अपने आपको नहीं दिया बल्कि अपने गुरु का ही उल्लेख किया । इस तरह हमारे शास्त्रों में आज तक पवित्रता एवं शुचिता का समावेश है, चाहे ये गुरु-शिष्य परम्परा से भले ही हम तक पहुँच पाये हैं । हमें वे घोषणाएँ मान्य नहीं हैं जो मन तथा बुद्धि के स्तर से की गयी हों। इन्हें हम 'सनातन' वेद का अंग कभी नहीं मान सकते क्योंकि ऐसा करने पर हमारे दर्शन भी पश्चिमी दर्शन-ग्रन्थों के समान परिवर्तनशील बन जायेंगे अर्थात् हर १५-२० वर्ष के बाद उनका संशोधन करना आवश्यक हो जायेगा।
यूरोप में राष्ट्रीय-जीवन के प्रत्येक परिवर्तन, युद्ध, संकल्प आदि के साथ भौतिक पदार्थों के मूल्यांकन में परिवर्तन हो जाता है और इसके फलस्वरूप जीवन के प्रति मानसिक तथा बौद्धिक प्रवृत्तियों का दृष्टि-कोण बदलता रहता है । यूरोप वालों के मस्तिष्क में ज्यों-ज्यों परिवर्तन होते गये दर्शन-ग्रंथों की संख्या में वृद्धि होती रही जो प्लेटो (अफलातू) के समय से आजतक देखने में आयी है । इसके विपरीत भारत के 'सनातन' वेद और
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