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हुआ । इस प्रकार हमारे पास उपनिषदों के रूप में कई अद्वितीय दर्शन-ग्रंथ हैं जिनके रचयिताओं के नाम हमें मालूम नहीं । हाँ, हम यह अवश्य जानते हैं कि बुद्धि-चातुर्यं से ओत-प्रोत इन उज्ज्वल शब्दों का स्रोत कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने उस सार तत्त्व का आत्मानुभव किया और बाद में उसका इतने विस्तार से वर्णन किया ।
वैसे आपने यह अनुभव किया होगा कि हम जब कभी कोई भाव पूर्ण पत्र या टिप्पणी लिख लेते हैं तो उसे दूसरों को दिखाने तथा हमारी सृजनकला से होने वाले आनन्द का साँझीदार बनाने के लिए हम उतावले हो उठते हैं । इस तरह यह कहना ठीक होगा कि सब मौलिक चित्रकार 'लकीर के फकीर' एवं स्थूल-बुद्धि संसारियों के लिए एक झमेला बन कर रह जाते हैं । यदि कोई गायक अपने गीत में खो जाय तो आप अपनी निर्धारित रेलगाड़ी द्वारा जाने के संकल्प का भी त्याग कर देंगे । एक लेखक तब तक आप का पीछा कहीं छोड़ेगा जब तक वह आपको अपनी रचना सुना नहीं लेता । किमेडीज़ को यह ज्ञान नहीं रहा कि उसके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था । वह तो नगर की सड़कों पर 'यूरेका', 'यूरेका' चिल्लाता फिरा । ये क्षण ऐसे हैं जब मनुष्य एक निमेष के लिए अधः - क्षेत्र को छोड़कर अपने सीमित बल द्वारा 'सर्वज्ञ' की एक ग्रनुपम रश्मि से प्रालोकित हो जाता है । ऐसा कोई सच्चा कवि, चित्रकार अथवा गायक नहीं जो अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति के लिए अपने आपको पूर्ण प्रशंसा का पात्र समझे । वह सृजन - कला ही सर्वोत्तम होगी जिसका प्रदर्शन करते समय सीमित अहंभाव का अस्तित्व न रहे ।
जब उपनिषद्-द्रष्टाओं ने अहंभाव से परे के साम्राज्य का पूर्ण अनुभव कर लिया तो उन्होंने स्वभावानुसार अपनी घोषणाओं से निजव्यक्तित्व को अछूता रखा । उन्होंने अपने अनुभव को चाहे कितने उत्तम ढंग से प्रकट किया हो तो भी वे अपने विषय की वास्तविक महत्ता, सुन्दरता तथा पूर्णता को व्यक्त न कर सके । असीम को ससीम द्वारा न तो स्वयं समझा जा सकता है और न ही दूसरों को समझाया जा लकता है । "ईश्वर की परिभाषा करना उसे दूषित करने के समान है। "
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