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के महान
सब से अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं क्योंकि इन पर वर्तमान युग दर्शनाचार्यों ने भाष्य एवं टीकाएँ लिखी हैं । इन दश उपनिषदों में 'माण्डू - क्योपनिषद्' को बहुत उच्च स्थान दिया गया है ।
'माण्डूक्योपनिषद्' में केवल १२ मंत्र हैं । इतना संक्षिप्त होने के कारण पाठक इसके विषय को उस समय तक समझ नहीं पाते जब तक इसकी पर्याप्त व्याख्या न की जाय । इसलिए श्री गौड़पाद ने, जो श्री शंकराचार्य के पितामह - गुरु थे, इस उपनिषद् की व्याख्या 'कारिका' द्वारा की । यही कारण है कि आजकल 'माण्डूक्योपनिषद्' के पाठ को उस समय तक सम्पूर्ण नहीं समझा जाता जब तक 'कारिका' का भी अध्ययन न किया जाय ।
सामान्यतः 'कारिका' कोई आलोचना नहीं है । वास्तव में कारिकाएँ वे स्मरणीय पदावलियाँ हैं जो छन्द-रचनाओं की सहायता से किसी विशेष विषय अथवा सिद्धान्त का निरूपण करती हैं ताकि इसे सुगमता से कण्ठस्थ किया जासके । 'मंत्र' अथवा 'सूत्र' भी इसी उद्देश्य से लिखे जाते हैं परन्तु मंत्र साधारणतः गद्य में होते हैं और इन्हें इतने संक्षेप से लेखनी-बद्ध किया जाता है कि इन्हें संकुचित करने के प्रयास में कई बार लेखक संदर्भ वाले शब्दों का भी प्रयोग नहीं करते। साथ ही 'कारिकाएँ' केवल निर्दिष्ट स्थल की व्याख्या करती हैं जब कि 'सूत्र' समूचे विषय पर प्रकाश डालते हैं ।
उपनिषदों के नामों से न तो उनके विषय का पता चलता है और न ही रचयिता का, यद्यपि कई उपनिषदों के नामों से हमने अपना ही अर्थ जोड़ने का प्रयास किया है। असल में उपनिषदों के नाम उनके पाठ्य विषय के पहले अक्षर के अनुसार होते हैं (जैसे- 'ईशावास्य', 'केन' इत्यादि ) । इस युग में जब हम किसी सुन्दर रचना के लेखक का नाम नहीं ढूंढ सकते तो हम असमंजस में पड़ जाते हैं । इसलिए श्रात्म-तृप्ति के लिए हम उसके रचयिता का कोई न कोई नाम गढ़ने का प्रयत्न करते हैं और वह भी उपनिषद् के नाम की सहायता से, जैसे 'कठोपनिषद्' के रचयिता 'कक ऋषि' ।
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