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प्रथमोपशम-सम्यक्त्व-ग्रहण--पात्रता
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प्राप्तिसंभवात, अनाकारे दर्शनोपयोगे तद्विचाराभावात् । कस्मिन् काले प्रथमोपशमं गलाति? पंचमी लब्धिः करणलब्धिः तस्या वरः उत्कृष्टो भागः अनिवृत्तिकरणपरिणामः, तस्य लब्धिः प्राप्तिः तस्याः चरमसमये प्रथमोपशमसम्यक्त्वं गृह्णाति जीव इत्यर्थः । स च भव्य एव, अभव्यस्य तद्ग्रहणायोग्यत्वात् । विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्यत्वं संगृहीतम्, उदयप्रस्तावे स्त्यानगृद्धयादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात् जागरत्वमप्युक्तमेव ॥२॥
तहां प्रथम ही प्रथमोपशमसम्यक्त्वका विधान कहिए है
स० चं०-च्यारयो गतिवाला अनादि वा सादि मिथ्यादृष्टि संज्ञी पर्याप्त गर्भज मंद कषायरूप जो विशुद्धता ताका धारक, गुण दोष विचाररूप जो साकार ज्ञानोपयोग ताकरि संयुक्त जो जीव सोई पांचवीं करण लब्धिविर्षे उत्कृष्ट जो अनिवृत्तिकरण ताका अंत समयविर्षे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकौं ग्रहण करै । इहां औसा जानना
जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थानतें छूटि उपशम सम्यक्त्व होइ ताका नाम उपशम सम्यक्त्व है । बहुरि उपशमश्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्वतें जो उपशम सम्यक्त्व ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है, तातै मिथ्यादृष्टिका ग्रहण कीया है। बहुरि सो प्रथमोपशम सम्यक्त्व तिर्यंच गतिविर्षे असंज्ञी जीव हैं तिनकै न हो है । अर मनुष्य तिर्यंचविष लब्धि-अपर्याप्तक अर सन्मर्छन हैं तिनकै न हो है । बहुरि च्यारयो गतिविौं संक्लेशताकरि युक्त जीवकैं न हो है । बहुरि अनाकार दर्शनोपयोगका धारीक न हो है, जातें तहां तत्त्वविचार न संभव है। बहरि आगें तीन निद्राके उदयका अभाव कहेंगे, तातै सूता जीवके न हो है । अर भव्यहीके सम्यक्त्व हो है, ताक् अभव्यक न हो है। ए भी विशेषण इहां संभवै हैं ॥२॥
विशेष—यहाँ मुख्यरूपसे तीन बातोंका स्पष्टीकरण करना है-(१) जिस अनादि मिथ्यादष्टि भव्य जीवका संसारमें रहनेका काल अधिकसे अधिक अर्घपुद्गल परिवर्तनप्रमाण शेष रहता है वह उक्त कालके प्रथम समयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वके योग्य अन्य सामग्रीके सद्भावमें उसे ग्रहण कर सकता है। उस समय उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति नियमसे होती है ऐसा कोई नियम नहीं है । मुक्त होनेके पूर्व इस कालके मध्यमें कभी भी वह प्रथमोपशम-सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके छूटने पर सादि मिथ्यादष्टि जीव पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके जाने पर ही उसे प्राप्त करनेके योग्य होता है, इसके पूर्व नहीं । (२) संस्कृत टीकामें शुद्ध पदका शुभ लेश्यारूप अर्थ किया है। किन्तु नरक गतिमें शुभ लेश्याओंकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। जीवस्थान चूलिकामें विशुद्धपदके स्थानमें सर्वविशुद्ध पद आया है । वहाँ इस पदका अर्थ 'जो जोव अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करण करनेके सन्मुख है' यह जीव लिया गया है। प्रकृतमें विशुद्ध पदका यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए। (३) यहाँ गाथामें अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ऐसा कहा गया है सो उसका आशय यह लेना चाहिए कि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयके व्यतीत होने पर अगले समयमें यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है । शेष कथन सुगम है। अथ पंचलब्धिनामोद्देशं तत्कार्यविभागं च कुर्वन्नाह
खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते ।। ३ ।। क्षयोपशमविशुद्धी देशनाप्रायोग्यकरणलब्धयश्च । चतस्रोऽपि सामान्यात् करणं सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥
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