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लब्धिसार
सं० टी०-अपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य गुणसंक्रमेण सम्यक्त्वमिश्रप्रकृत्योः गणश्रेणिविधानं गणसंक्रमविधानं स्थितिखंडनमनभागखंडनं च वर्तते ।। ५३ ।।
पूरणकालचरमसमयपर्यंत
स० चं-अपूर्वकरणके प्रथम समय” लगाय यावत् सम्यक्त्वमोहनो मिश्रमोहनीका पूरणकाल जो जिस कालविर्षे गुणसंक्रमणकरि मिथ्यात्वकौं सम्यक्त्वमोहनी मिश्रमोहनीरूप परिणमावै है तिस कालका अंत समय पर्यंत गुणश्रेणि १ गुणसंक्रमण १ स्थितिखंडन १ अनुभागखंडन १ ए च्यारि आवश्यक हो हैं ॥ ५३ ॥
विशेष-अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर जो चार आवश्यक कार्य प्रारम्भ होते हैं वे हैंगुणश्रेणी, गुणसंक्रम, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात । इतना विशेष है कि मिथ्यात्वका अन्तरकरण करनेके बाद उसकी प्रथम स्थिति आवलि और प्रत्यावलि अर्थात् दो आवलिप्रमाण शेष रहने पर उसका गुणश्रेणि रूपसे द्रव्यका निक्षेप नहीं होता, क्योंकि आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण प्रथम स्थितिके शेष रहनेके एक समय पूर्व ही आगाल और प्रत्यागालका होना बन्द हो जाता है । यदि कहा जाय कि प्रत्यावलिमेंसे गुणश्रेणिनिक्षेप होने में कोई बाधा नहीं है सो यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि इस अवस्थामें उदयावलिके भीतर गुणश्रेणिनिक्षेपका होना असम्भव है । यदि कहा जाय कि प्रत्यावलिमेंसे अपकर्षित द्रव्यका उसीमें गुणश्रेणिनिक्षेप हो जायगा सो यह कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वह स्वयं अतिस्थापनारूप होनेसे उसमें अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप होना असम्भव है । इतने धक्तव्यसे यह स्पष्ट हुआ कि मिथ्यात्वके द्रव्यका गुणश्रेणिनिक्षेप उसकी प्रथम स्थितिके आवलि और प्रत्यावलिप्रमाण शेष रहनेके पूर्व समय तक ही होता है । अब रहे शेष तीन आवश्यक कार्य सो इनमेंसे मिथ्यात्वके द्रव्यके स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात ये दो कार्य विशेष तो मिथ्यात्वके प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक होते रहते हैं । तथा मिथ्यात्वके द्रव्यका गणसंक्रम प्रथमोपशम सम्यक्त्वके हो जानेके बाद सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके पूरण होनेके अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है। यह मिथ्यात्व प्रकृतिकी अपेक्षा विचार है। इतनी विशेषता है कि अनुभागकाण्डकघात अप्रशस्त कर्मोका ही होता है, क्योंकि विशुद्धिके कारण प्रशस्त कर्मोंकी अनुभागवृद्धिको छोड़कर उनके अनुभागका घात नहीं हो सकता। अब प्रकृतमें स्थितिबन्धापसरण आदिके कालका विचार करते हैं
ठिदिबंधोसरणं पुण अधापवत्तादापूरणो त्ति हवे । ठिदिबंधटिदिखंडुक्कीरणकाला समा होति ॥ ५४ ॥ स्थितिबंधापसरणं पुनः अधःप्रवृत्तादापूरण इति भवेत् । स्थितिबंधस्थितिखंडोत्कीरणकालाः समा भवंति ॥
सं० टी०-स्थितिबन्धापसरणं पुनरधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयादारभ्य आगुणसंक्रमणपूरणचरमसमयं प्रवर्तते यद्यपि प्रायोग्यतालब्धिकाले स्थितबन्धापसरणप्रारंभः कथितस्तथापि तत्र तस्यानवस्थितत्वेन अविवक्षितत्वात करणपरिणामकार्यस्यावश्यंभावन अवस्थितत्वाधःप्रवृत्तकरणप्रथमसमयादारभ्य स्थितिबंधापसरणं विवक्षितं स्थितिबन्धापसरणस्थितिकांडकत्कोरणकालो द्वावप्यंतर्मुहूर्तमात्रौ समानावेव ।। ५४ ॥
१. तम्हि ट्ठिदिखंडयद्धा ट्ठिदिबंधगद्धा च तुल्ला । क० पा० चू०, जयध० मा० १२,पृ० २६६ ।
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