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क्षपणासार
जानना। प्रतिलोम कहिए अन्यथा प्रकार संक्रमण अब न हो है। इहांतें आगें स्थितिबंधतें संख्यातगुणा घाटि स्थितिबंधापसरणका प्रमाण मोहनीयका भया जातै संख्यात वर्ष स्थितिबंध होनेतै परे स्थितिबन्धापसरण का प्रमाण स्थितिबन्धत संख्यातगुणा घटता हो है। अर बत्तीस वर्षमात्र स्थितिबन्ध भए पीछे स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण अन्तमुहूर्तमात्र हो है ऐसी व्याप्ति सर्वत्र जाननी ।।४३ -४३९।।
विशेष—पहले जो सात करणोंका निर्देश किया है उनमें एक आनुपूर्वी संक्रमण भी है। उसीके अनुसार यहाँ बतलाया गया है कि नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका पुरुषवेदमें संक्रम होता है. पुरुष वेदसहित सात नोकषायोंका क्रोधसंज्वलनमें, क्रोधसंज्वलनका मानसंज्वलनमें, मानसंज्वलन का मायासंज्वलनमें और मायासंज्वलनका लोभसंज्वलनमें संक्रम होता है। तथा लोभसंज्वलनका स्वमुखसे ही क्षय होता है। नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके संक्रमके समयसे लेकर प्रतिलोम संक्रम नहीं होता।
ठिदिबंधसहस्सगदे संढो संकामिदो हवे पुरिसे । पडिसमयमसंखगुणं संकामगचरिमसमओ त्ति' ॥४४०।। स्थितिबंधसहस्रगते षंढः संक्रामितो भवेत् पुरुषे ।
प्रतिसमयमसंख्यगुणं संक्रामकचरमसमय इति ॥४४०॥ स० चं-अंतरकरणके अनंतर समयतै लगाय संख्यात हजार स्थितिबंध व्यतीत भएं नपुसकवेद है सो पुरुषवेदविषै संक्रमित हो है। नपुसकवेदकी क्षपणाका प्रथम समयतें लगाय समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लीए संक्रमकालका अंतसमयविषै नपुसकवेदके द्रव्यका पुरुषवेदविषै संक्रमण हो है। सो ऐसे गुणसंक्रमणरूप अनुक्रमतें संख्यात हजार कांडक भए अंतसमयविषै जो अंत कांडककी अंत फालि ताकौं सर्व संक्रमणकरि संक्रमावै है। ऐसैं नपुंसकवेदको पुरुषवेदरूप परिणमाइ नाशकौं प्राप्त करै है। ऐसा अर्थ स्त्रीवेदकी क्षपणा आदिविषै भी जोडना ॥४४०॥
बंधेण होदि उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ । गुणसेढी असंखेज्जापदेसअग्गेण बोधव्वा ॥४४१॥ बंधेन भवति उदयः अधिक उदयेन संक्रमोऽधिकः ।
गुणश्रेणिरसंख्येयप्रदेशांगेन बोद्धव्या ॥४४१॥ स. चं-नपुसकवेदका संक्रमण कालबिर्ष पुरुषवेदका बंध द्रव्यतै उदय द्रव्य अधिक है अर उदय द्रव्यकरि संक्रमण द्रव्य अधिक है सो अधिकता असंख्यात प्रदेशसमूहकरि गुणश्रेणि कहिए गुणकारकी पंक्ति तिसरूप जाननी। भावार्थ-इहां पुरुषवेदका जितने प्रदेशनिका बंध हो है तातें असंख्यातगुणा अधिक ताके प्रदेशनिका उदय हो है। अर तातै असंख्यातगुणा अधिक प्रदेशनिका तहां संक्रमण हो है। सोई कहिए है१. तदो संखेज्जेसु ट्ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु णव॑सयवेदो संकामिज्जमाणो संकामिदो ।
क० चु० पृ० ७५३ । २. क० पा० गा० १४४, क० पृ० ७६९ ।
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