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ग्रन्थप्रशस्तिवर्णन उपशम श्रेणि कथन पर्यंत । ताकी टीका संस्कृतवंत । देखी देखे शास्त्रनि माहि । संपूरण हम देखी नाहि ॥ २४ ॥ माधवचंद यती कृत ग्रंथ । देख्यो क्षपणासार सुपंथ । संस्कृत धारामय सुखकार । क्षपक श्रेणि वर्णनयुत सार ॥ २५ ॥ घह टीका यह शास्त्र विचार । तिनि करि किछू अर्थ अवधार । लब्धिसारकी टीका करी। भाषामय अर्थनसों भरी ॥ २६ ॥ असे प्रथ दोयकी बनी । भाषा टीका सुंदर घनी । इनिमैं जैसे कियो वखान । क्रमतै जानो ताहि सुजान ॥ २७ ॥
सवैया करिकै पीठबंध जीवकांड भाषा कीनी तामै गुणथान आदि दोय वीस अधिकार हैं। प्रकृति समुत्कीर्तन आदि नव ग्रंथनिको समुदाय कर्मकांड ताकी भाषा सार है। असे अनुक्रम सेती पीछे लिख्यो इनिहीकी संदृष्टीनिको स्वरूप जहां अर्थभार है। पूरण गोम्मटसार ग्रंथ भाषा टीका भई याकौं अवगाहैं भव्य पा3 भव पार हैं ॥ २८ ॥ समकित उपशम क्षायिकको है वखान । पीछे देश सकल चारित्रको बखान है। उपशम क्षपक श्रेणी दोय तिनहूको कीयो है वखान ताकौं जाने गुणवान है। सयोगी अयोगी जिन सिद्धनिकों वर्णनकरि लब्धिसार प्रथ भयो पूरण प्रमान है। इनकी संदृष्टिनिकों लिखिके स्वरूप ताकी संपूरण भाषा टीका कीनी भयो ज्ञान है ॥ २९ ॥ याविध गोम्मटसार लब्धिसार ग्रंथनिकी
भिन्न भिन्न भाषा टीका कीनी अर्थ गायकें । इनिकें परस्पर सहायपनौ देख्यो तातें
एक करि दई हम तिनिकी मिलायकें । सम्यग्ज्ञान चंद्रिका धरथो है याको नाम
सो ही होत है सफल ज्ञानानंद उपजायके । कलिकाल रजनीमैं अर्थको प्रकाश करे
यातें निज काज कीने इष्ट भाव भायके ॥ ३० ॥ संशयादि ज्ञाननिकौं हेतुभूत जीवनिके
तथाविध कर्मको क्षयोपशम जानिए । ताकरि हमारें किछू संशय विपर्यय वा
अनध्यवसाय भया होसी असें मानिये । तिनकरि ग्रंथविर्षे कहीं लिएं संशयकौं
___ कहीं विपरीत कहीं स्पष्ट न वखानिये । लिख्यो होइ अर्थ ताकौं मेरो वश नाहि तातें
क्षमा करो गुनी, शुद्ध करो चूक मानिये ॥ ३१ ॥
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